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Monday, February 18, 2013

हमारी मानसिकता ही खराब है....

हमारी मानसिकता ही खराब है या जानबूझकर इसे शनैः-शनैः खराब किया गया है?

आदमी विनाश और विध्वंश का तमाशा देखकर, पढ़कर कितना हर्षित होता है!! युद्ध, लड़ाई-झगडे, मार-पीट, कार-क्रैशेस, विस्फोट, धमाके, खून, क़त्लोगारत और औरताना जिस्म की भद्दी नुमाइश देखना और दिखाना, लिखना और पढना-पढ़ाना कितना भाता है!! फूहड़ता में संस्कृति ढूंढी जाती है। कॉमेडी जितनी फूहड़ होगी उतनी तालियाँ बजेंगी। इसे रचने वाले रचयिताओं की मानसिकता के बारे में कुछ कहना मुश्किल है पर उनकी रचनाओं में निहित ये 'नफरत के अंजाम' देख-पढ़कर खुश होने वाले, तालियाँ बजाने वाले 'हम' में से कितने लोगों ने असली ...एक मामूली सा देसी तमंचा भी साक्षात् देखा है? फिर ऐसे उन्मादों को झेल भी पायेंगे भला? युद्ध और क़त्लोंगारत की विभीषिकाओं को झेल भी पायेंगे भला? जंग के बाद के हालत से निपटने की कितनी ताकत है हममे, जो जंग के लिए तुरंत उद्धत हो उठते हैं? पर हम कायर और डरपोक भी नहीं__

"साथियों! दोस्तों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं! 
हमसे भी कृष्ण यही कहते हैं कि 
ज़िन्दगी सिर्फ अमल! सिर्फ अमल! सिर्फ अमल!
और ये बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है!
'अमन' की महँगी तस्वीर में है जितने रंग,
उन्हीं रंगों में छुपा खून का एक रंग भी है।
जंग रहमत है के लानत?_ये सवाल अब न उठा!
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी,
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का ज़लाल।
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का ज़लाल,...
>>इसी दोज़ख के किसी कोने में ज़न्नत होगी।<<
दोस्तों! साथियों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं!" __...यह एक अलग ज़ज्बे और विषय की बात है!

सामाजिक विषयों में भी बिना विष घोले उसकी सेल वैल्यू नहीं पाई जाती। क्या ऐसे विषय और इसके रचयिता साहित्यसृजन कर तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, चाणक्य, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह 'दिनकर', सुभद्रा कुमारी चौहान, विलियम शेक्सपियर और मुंशी प्रेमचंद के सदृश साहित्यकार कहलाने का हक रखते हैं? आप ऐसे रचनाओं पर छपी नग्न महिलाओं की छवि घर में खुलेआम दिखाकर देख-पढ़ पायेंगे, ऐसा सहजता से कर पाते हैं? क्या ऐसे 'लुगदी' रचनाओं को कीमती कागज़ पर छपवाने, बिकवाने से उसमे निहित अश्लीलता और नफरत की घिनौनी बू को आप अपनी संतान -पुत्र-पुत्री- को पढने के लिए रेकोमेंड कर उनसे शेयर करेंगे? अगाथा क्रिस्टी और सर आर्थर कानन डायल भी रहस्य कथा ही लिखकर अमरत्व सामान प्रसिद्धि के हक़दार बने। आंकड़े और लेख बताते हैं कि समूची दुनिया में बाइबल के बाद अगाथा क्रिस्टी के नोवेल्स बिके जो एक रिकार्ड है, लेकिन उन्होंने कभी स्वयं या अपने चमचों के मार्फ़त इस सवाल को हवा नहीं दी कि उन्हें साहित्यकार माना जाय या नहीं! जबकि हमारे स्कूलों की किताबों के पाठ्यक्रम में शर्लोक होम्स की कहानी को शामिल किया गया था! क्यों? वो इसलिए कि एक जासूस की सूझबूझ और अपराध के सटीक विश्लेषण की कहानी थी, जिसमे किसी भी प्रकार के नफरत, उन्माद और अश्लीलता की बात नहीं थी। ...आपने जो रचा उसकी स्वाभाविक और सामान्य से ज्यादा प्रशंशा, प्रसिद्धि और समृद्धि क्या आपको कम पड़ गई?...सो आप भी चाहते हैं की आपके पात्रों की कहानियाँ स्कूलों में पढ़ाई जाएँ?...आपको साहित्यकार मानकर आपकी जीवनी छापी जाय!...परीक्षाओं में आपसे सम्बंधित प्रश्न शामिल किये जाएँ!...इसी तरह शिक्षा की तरफ बच्चो का ज्यादा झुकाव होगा!...वे ज्यादा चपल और चतुर-चालाक नागरिक बनेंगे!...क्यों!!? इसी तरह सभी कॉमिक्स भी अब पाठ्यक्रम बन जाएँ तो पढना-लिखना और परीक्षा पास करना भी थ्रिल सस्पेंस सा मजेदार और चठ्कीला हो जाय। आपके कलम में और आपके ज़ेहन में साहित्यसृजन की कमाल की ताक़त है, जिसे कोई साहित्यिक दिशा दिए बगैर ये कोलाहल और सवाल आपकी स्वच्छ मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। जो आप स्वाभाविक तौर पे करते चले आ रहे हैं वो करते रहिये, साथ-ही-साथ कुछ ऐसा कीजिये जिसे हर स्तर पर हर मंच पर सम्मान मिले, जो स्वार्थ से परे कोमल मानवीय अनुभूतियों के साथ-साथ वीरोचित गायन को भी शब्द प्रदान करें तो कोई बात बने।

दूसरे का झगडा देखना और कोई झगडा खुद झेलना क्या एक-समान बात है? हम में से कितनों ने बन्दूक की गोली की आवाज़ भी नहीं सुनी। वही कोई गोली जब हमारे अगल-बगल से गुजरेगी तो उस दहशत से निपटने में हम स्वयं को सक्षम बना भी लें तो अपने परिवार और बच्चों को कैसे सक्षम बना पायेंगे? __क्या तालिबानी तालीम देकर? ...या सबको मिलिट्री में भारती करवा दें!? जंग के दृश्य टीवी, मूवी, और किताबों में देखना-पढना और झेलना क्या एक बात है? मनोरंजन के उद्देश्य से रचे गए ऐसे कथानक क्या बेवजह के उन्माद में सहायक नहीं? मनोरंजन क्या सेक्स के बगैर संभव नहीं? जोक्स भी तो मनोरंजन हैं। लेकिन जैसे जोक्स लिखकर लेखकों ने किताब की तरह छपवाकर सस्ती लोकप्रियता और पैसे कमाए वो क्या साहित्यकार कहलायेगा? क्या औरतों की फजीहत किये बिना जोक्स की रचना कर पाना असंभव था या है? सहज और निर्मल हास्य-व्यंग्य के कवि और साहित्यकार आज अपनी पहचान खोते अपने वजूद को ढूंढ रहे हैं, _इनके हास्य-रस के प्रेमी भटक कर कहीं और विलीन हो गए हैं। सर्कस भी तो मनोरंजन है, लेकिन सर्कस की महिला कालाबाज कलाकार भी जिस्म की नुमाइश किये बिना अपने रोमांचित करतब नहीं दिखाती, क्यों? जासूसी की कहानियाँ भी तो मनोरंजन के लिए ही हैं। एक्शन-पैक्ड सस्पेंस थ्रिलर फिल्म या उपन्यास भी तो मनोरंजन ही है। लेकिन उन्हें पेश करने का अंदाज़ क्या 'जन-जन में' लोकप्रिय है? जेम्स बांड के रचयिता इयान फ्लेमिंग के उपन्यास पर आधारित जेम्स बांड की पहली फिल्म 'Dr. NO' को शुरू में ये कह कर नकारा गया था कि फिल्म में सेक्स बहुत ही ज्यादा परोसा गया है। लेकिन जेम्स बांड आज एक मिथक और किवदंती बन गया है, जबकि अभी इयान फ्लेमिंग जीवित नहीं हैं, लेकिन उनके इस पात्र को सारे संसार में जो ख्याति मिली वो किसी भी -इसी विषय के- अन्य रचनाकारों के लिए इर्ष्या का द्योतक बन चूका है। इयान फ्लेमिंग के न रहने के बावजूद जेम्स बांड की फिल्मे बनाई और रिलीज़ की जा रही हैं, लेकिन इयान फ्लेमिंग को साहित्यकार नहीं मान लिया गया, और आजकल या पहले की किसी भी जेम्स बांड मूवी को हम अपने परिवार के साथ देख पाने का साहस खुद में नहीं जुटा पाते, क्यों? जन-जन में लोकप्रिय मानवीय मूल्यों की रचना से किसी को भाव-विह्वल और अभिभूत करना भी तो मनोरंजन है। puzzeled सस्पेंस की गुत्थी सुलझाने में या उलझन को सुलझाते देखने-पढने में जो आनंद और मजा है क्या वो सेक्स और हिंसा में है? 'हत्यारा कौन' जैसे टाइटल पर कितने ही रचनाओं को न जाने कितने ही रचनाकार नित्य-निरंतर रचते ही चले जा रहे हैं। लेकिन कितने ऐसे कथानक फ़िल्में या उपन्यास हमारे मन को प्रफुल्लित कर पाए और कितने ऐसे रचनाकार इसमें सफल हुये हैं? इसकी गिनती मामूली है। कोई अनगिनत नहीं, क्यों? प्यार-मोहब्बत-दोस्ती की कहानियां भी तो मनोरंजन हैं। ...ऐसे ही नार्मल ढंग से कोई रचनाकार क्यों अपनी धारा की दिशा और गति को बदल देता है? क्यों "भ्रमित करने वाले शीर्षक" से उन्हें पेश कर हमें छला जाता है? ...सब जानते-बूझते भी ऐसी ओछी बातों पर भी हम ताली पीटते जाएँ तो क्या ये एकनिष्ठ प्रेम और रचनाकार की लोकप्रियता की सही मिसाल कहलाएगी? जी नहीं। भ्रमित, झूठी, अंधी और अल्पायु लोकप्रियता ही कहलाएगी जिसे कोई बराबर शेयर करता नहीं रह पायेगा। प्रशंशनीय अमर रचना के लिए खुद-ब-खुद हमारे मुँह से 'वाह!' निकल जाती है। इसकी कई मिसालें हैं। पठनीय अवश्य पढ़ा जाएगा, देखेने योग्य को अवश्य देखा जाएगा और उसकी स्वाभाविक सराहना भी होगी ही। इसी प्रकार निदनीय की निंदा और आलोचना भी होगी ही। प्रशंशा जितनी मीठी और सुपाच्य होती है, उसी भावना से कोई रचनाकार आलोचना नहीं पचा पाकर भड़कता है तो क्या ये उसकी सही प्रतिक्रिया है?

ऐसे रचनाकारों की फैन-क्लब बनाना एक ख़ुशी और स्निग्ध स्नेहिल प्यार के लेन-देन के बदले, जानकारी और दिशा-ज्ञान के लेन-देन के बदले बेकार के बहस और झगडे का मंच बनते जा रहे हैं। बहस-मुबाहिसे, और झगडे को कंट्रोल कर पाना फैन-क्लब के प्रणेता के लिए कितना मुश्किल जॉब है, इसे विचार नहीं किया जाता। प्यार लो, प्यार दो के बदले प्यार का पोस्टमॉर्टेम शुरू हो जाता है। ऐसी हालत में मुख्य उद्देश्य गौण हो जाता है और ग्रुप की प्रतिष्ठा और आयु पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। फिर जब ग्रुप-निर्माता आपका हमख्याल हो, दूरस्थ ही सही मित्र हो तो बड़ी दुरूह परिस्थिति बन आती है। अपने बनाए घर को वो किसी भी हालत में किसी और की संपत्ति बनता क्यूँकर मंज़ूर करेगा? अपने घर के सदस्यों को जिन्हें उसने तिनका-तिनका बटोरकर प्रेम-घरौंदा बनाया है, उसे फसादी बातों में लिप्त करने वाले राय, मशवरे और सलाह कैसे मंज़ूर होंगे भला? वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुंचाना भी हो मुश्किल, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। बहुत अच्छा।

कोई कथानक यदि देश और समाज के शत्रुओं के खिलाफ छेड़ी गई किसी मिशन की चर्चा करता है तो वो एक समाचार की तरह साधारण भाव से देखा-पढ़ा-सूना नहीं जाता, बल्कि वो हमें रोमांचित करता है। ज़ुल्म की मुखालफत करता कमजोर सा नायक जब जीतता है तो उसे स्वाभाविक प्रशंशा और प्रसिद्धि मिलती है, जैसे जीत सिंह उर्फ़ जीता को "खोटा सिक्का" और "जुर्रत" में मिली। कथानक वीभत्स होने के बावजूद मुकेश माथुर को "वहशी" में मिली और सुनील को "मीना मर्डर केस" में मिली थी। लेकिन वही कमजोर सा नायक जब खुद स्वार्थ सिद्धि के लिए ज़ुल्म ढाएगा तो क्या उसे सराहना मिलेगी? जैसे "तीस लाख" का जीता? "मावली" जैसी घृणित रचना को पता नहीं किस भावावेश में "कांपता शहर" बनाकर नया जन्म दिया गया, क्या वो किसी भी दृष्टिकोण से मनोरंजन था, साहित्य्सृजन था? जानबूझकर ऐसे विषय गढ़ना और उसमे महिला पात्र को अश्लीलता में सराबोर पेश करना, खामखाह, नाहक के खून क़त्लोंगारत और नफरत से लिथड़े कथानक क्या रचनाकार की कलात्मकता और साहित्य सेवा है?

" ...calm down! सिंपल! जस्ट एन्जॉय इट, एंड लेट अस एन्जॉय! डोंट गेट इमोशनल एंड प्रोवोक अस टू बी इरिटेटेड ...वुइ आर नॉट बीइंग करप्टेड एनी मोर ...प्लीज़ डोंट मेक अस अपसेट एंड एंग्री, ओके!" __ ऐसा कहने से क्या मेरे द्वारा उठाये गए सवालों के जबाब मिल गये? मुझे अपना मुँह लपेट कर चुप हो जाना चाहिए?

मेरे विचार से जो रचना 'मनोरंजन के साथ-साथ' हमें शिक्षित करती है और आपस में प्रेम-भाईचारे को प्रबलता प्रदान करते हुये मानवीय मूल्यों की सुदृढ़ छाप छोडती है वही हम मित्रों और बच्चों के साथ फक्र के साथ शेयर कर पाते हैं, और ऐसी रचना का रचयिता ही मेरी निगाह में साहित्यकार है। बाकी सिर्फ व्यापारी हैं। अगर मेरे सवाल सही और जायज हैं तो जरूरत है नजरें व्यापक कर रचनात्मक दुनिया को और गौर से खंगालने की। ...मुझे बड़ी ही शिद्दत से सलाह दी गई है कि मैं अन्यत्र प्रयास करूँ। शर्त है कि वल्गर पढो, मज़े लो, सराहो,...पर वल्गर न बोलो न लिखो!! मैंने कहा था न कि 'एकला चोलो रे' मेरी नीयति है, मैं इसे नहीं बदल सकता!! ...लेकिन राह दिखाने वाले रहबर, और दिल मिलाने वाले दिलबर की संगत मिले तो खुशकिस्मती मानकर क़ुबूल करूँगा, और ख़ुशी है कि मुझे नयी राह और राही मिलते ही जा रहें हैं। निर्मल और सृजनात्मक साहित्य की दुनिया बहुत ही विशाल है, इसलिए सही बात है कि एक खूंटे से बंधा रह पाना मेरे लिए काफी कठिन है। क्योंकि मैं बहुत ही ज्यादा भ्रमित हूँ...

जब मेरे ऐसे ही विचार हैं तो क्या मैं किसी भी ग्रुप और फोरम का सदस्य बने रहने के लायक हूँ? _नेवर।

मेरी अपनी स्वछन्द दुनिया ही मेरे लिए बहुत है। बहुत ही खूबसूरत है।
सो एकला चोलो रे बोंधु,
एकला चोलो रे!
_श्री .