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Tuesday, February 5, 2013

'सरेंडर!'

1.आज सोमवार है, 'हजामत मत बनाना!_पित्रिघातक दिन है। इस दिन कोई शुभकर्म नहीं करने हैं! नए वस्त्र नहीं पहनने हैं। यात्रा वर्जित है! खान-पान में संयम बरतना! समझ गये ना...!'
2.आज मंगलवार है, 'उत्तर दिशा की यात्रा वर्जित! हजामत मत बनाना!_बजरंग बलि का दिन है! खान-पान में संयम बरतना!'
3.आज बुधवार है, 'उत्तर दिशा की यात्रा वर्जित है, ...पर हजामत बना लो, भूत लग रहे हो!'
4.आज गुरूवार है, 'कपडे नहीं धुलेंगे। खान-पान में संयम आवश्यक है! हजामत !? -खबरदार जो सोचा भी ...! दक्खिन/दक्षिण की यात्रा प्राण घातक होगी!! दिशा शूल भूल गए!!??'
दिशाशूल :"सोम शनिचर पूरब न चालू। मंगल बुध उत्तर दिसि कालू।।
               "बिफे दक्खिन करे पयाना। फिर नहीं समझो ताको आना।।"
5.आज शुक्रवार है, 'सभी काम आज निपटा लो, लेकिन सोलह शुक्रवार का प्रसाद खाया है तो फिर खान-पान में संयम अत्यावश्यक!! कोई व्रत ठान रखी है तो बाबा जी से पूछ लो वरना ... '
6.आज शनिवार है, 'बेटा! तेल लगा कर नहाओ! शनिचर जी को तेल अर्पण करो! खिंचड़ी खाओ। हजामत!? ना ना ना, ...कल, कल, ...एँ ना!?'
7.आज रविवार है, 'आज नमक वर्जित है! मानना है तो मानो नहीं तो फिर सूर्य भगवान् सब देख ही रहे हैं, भुगतना! ...हजामत बनाकर शैम्पू-साबुन से नहा लिया न! अब जा के भक्षो जो भकोसना है!! फिर देखतें हैं कल से तुमको...! जो परम्परा न माने वो मनुष्य कहलाने के लायक नहीं!'

पाबंदियाँ एक ओर जहाँ हमें अनुशाशित रखती हैं, बाद में वही पाबंदियाँ हमें गुलामी की बेड़ियाँ लगने लगतीं हैं। कोई ताज़िंदगी पाबंदियों में बंधा अनुशाशित जीवन जीता है, तो कोई कुढ़-कुढ़ कर मन-ही-मन पाबंदियों को कोसते झल्लाते जीता है तो कोई पाबंदियों की खिल्ली उड़ाता है, कोई इन पाबंदियों को जान-बूझकर ठुकराता है, कोई इन पाबंदियों, बंदिशों के बारे में जानता तक नहीं। पाबंदियों से अनजान व्यक्ति जब पहली बार उनसे परिचित होता है तो वो खुद को असहज और असुविधापूर्ण स्थिति में पाता है। कोई चुप रहता है तो कोई विद्रोह कर देता है। हमें जन्म से ही पारिवारिक-सामाजिक 'पाबंदियों की पाठशाला' का नियमित (पर, अघोषित) विद्यार्थी बना दिया जाता है। परंपरा। रीत-रिवाज। नियम। शर्तों के नाम पर, हमारी अनिच्छा से, हमपर लादी गयीं पाबंदियां हमारे जीते-जी कभी भी हमारा पीछा नहीं छोड़तीं। सवाल-जवाब तक की इजाज़त नहीं होतीं। ज़रा सी चूक, नियमों का उलंघन -'घनघोर पाप!'- की तरह हमारे चरित्र पर एक लांछन की तरह मसल कर हमारी हरेक ऊर्जा हमसे छीन ली जाती है। हर जाती-धर्म के अपने नियम और पाबंदियां है, जिन्हें "परंपरा" कहकर महिमामंडित किया जाता है -जो पुरातन काल से जारी, न जाने पर शायद सृष्टि के अंत में भी ख़त्म न हों...

घर-परिवार से निकले तो पाठशाला की नियमें!
पाठशाला गए तो कक्षाओं की नियमें।
कक्षाओं में गए तो पढ़ाई की नियमें।
खेलने गए तो खेलों में शर्तें और नियमें।
हंसने-खिलखिलाने, नाचने-गाने, खेलने-कूदने में नियम और शर्तें।
खेल और पढ़ाई में मित्रता और रूठने-मनाने की नियमें।
दोस्ती हुई तो उसमे भी शर्तें और नियमें।
छुट्टियों में भी होम-वर्क की शर्तें और 'आवश्यक' ट्यूशन की नियमें।
पर्व-त्योहारों में रीत-रिवाज की शर्तें और जात-पात की बंदिशें।
बड़े होने लगे तो चेतावनी और हिदायतों की बंदिशें।
सामजिक व्यवहार के तौर-तरीके की बंदिशें।
शौच और दातून की शर्तें और नियमें।
शगुन-अपशगुन का डर बता कर अनचाहे, अवांछित कर्म करने की शर्तें और नियमें।
खाने-पीने-पहनने ओढने-बिछाने-सोने तक की नियमें।
आराधना-पूजा में भी शर्त और बंदिशों से निहित नियमें।
स्वछन्द होकर उड़ान भरने की रोकथाम, शर्तें और नियमें।
प्राकृतिक प्रतिभा को ओछा बताकर किताबी कीड़ा बानाने की रवायतें, शर्तें और नियमे।
जिन्हें जानते नहीं उनकी जयजयकार करने की शर्तें, पाबंदी और नियमें।
बाज़ार-हाट की शर्तें और नियमें।
युवावस्था में ही बूढा बना देने वाली दलीलें, शर्तें और नियमें।
माँ-बाप-भाई-बहन-नाते-रिश्ते को हर हाल में निभाने की शर्तें। 
घर-ज़मीन-जायदाद में हिस्से और बंटवारे की शर्तें और नियमें।
रोज़ी-रोटी में भीषण पाबंदियां, कड़े नियम और शर्तें।
मोहताजी का मुँह देखने वालों को अपनी औकात में ही रहने की शर्तें।
मनोभाव ज़ाहिर करने के लिए हुक्म की गुजारिश की शर्तें।
बीमार पड़ो तो कड़वी दवा पीने की शर्तें।
प्रकृति की क्रूरता, आपदा, विपत्ति में भी सड़कर मरने के लिए घिसट-घिसट कर जीने की शर्तें।
मृत्यु को झेलते जीवन जीनें की शर्तें।
शर्तें-शर्तें, नियमें-नियमें, पाबंदियां-ही पाबांदियाँ!! कितने याद करोगे! कितने दर्ज करोगे! ...पर झेलो, झेलते जाओ।

जो ये शर्तें न माने तो ...?>>>
अच्छा खिलाड़ी नहीं बनेगा।
अच्छा नेता नहीं बनेगा।
अच्छा लेखक नहीं बनेगा।
अच्छा वक्ता/अधिवक्ता नहीं बनेगा।
अच्छा डॉक्टर नहीं बनेगा।
अच्छा इंजिनियर नहीं बनेगा।
अच्छा अभिनेता नहीं बनेगा।
अच्छा व्यापारी नहीं बनेगा।
अच्छा गायक नहीं बनेगा।         
अच्छा पेंटर नहीं बनेगा।
अच्चा विचारक नहीं बनेगा।
अच्छा नागरिक नहीं बनेगा।
अच्छा पुत्र-पति और पिता नहीं बनेगा।
अच्छा मित्र-साथी और दोस्त नहीं बनेगा। 
अच्छा नेक आदमी नहीं बनेगा।
अच्छा नेक इंसान नहीं बनेगा।
अच्चा समाज नहीं बनेगा।
अच्छी सेना नहीं बनेगी।
अच्छा देश नहीं बनेगा। ( ...........यह फेहरिस्त कितनी लम्बी हो सकती है?)

इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम भी सही सर्किट के बिना ठीक से परफॉर्म नहीं करता। इंसान, पशु-पक्षी, सजीव-निर्जीव, जड़-चेतन, ग्रह-नक्षत्र, सूरज-चाँद सितारे, प्रकृति सब कुछ एक नियम और मर्यादा की पाबंदियों में ही फंक्शन करते है, तो फिर मेरी क्या बिसात!! सभी ने कहा है कि 'सभ्य समाज' वही है जिसमे पाबंदियों-नियमों और शर्तों का अनुपालन "समुचित तरीके से" हो। अनुशाशनहीन मनुष्य पशु के सामान है। गांधी जी ने भी कहा है कि अनुशाशन ही देश को महान बनाता है।

तो, मैं इस बात के आगे नतमस्तक हूँ।
और खुद को इनके आगे समर्पित करता हूँ।
"त्वदीयं वसु गोविन्द.., तुभ्यमेव समर्पये।"
"जो तुध भावे नानका, सोई भली कार।"

_श्री .