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Wednesday, January 23, 2013

मैंने निश्चय कर लिया है

मैंने निश्चय कर लिया है कि अब अपने कुछ मित्रों के पठान-पाठन से सबक लेकर कुछ कालजयी रचनाओं को पढने और कुछ सीखने का। इसलिए शायद अब इस ब्लॉग पर मैं कम ही पोस्ट रखूँगा। आत्मविश्लेषण के लिए स्वयं को पहचानने की आवश्यकता है। मुझे मेरी भूलों का अंदाजा हो रहा है। मेरा सोचना ठीक निकला। दुनिया प्यार- मोहाब्बत और दिलवालों से भरी पड़ी है। उनमे से जो भी चुनोगे हीरे-मोती ही मिलेंगे। फिर अपनी हांकने से पहले सामने फैले विशाल ज्ञान के भण्डार जो अनमोल रचनाएं हैं उन्हें पढ़े बिना कुछ कहना करना नादानी होगी। संभल कर चलने में ही गति है। और यही संभलने का सही वक़्त है।
........
_श्रीकांत तिवारी .

Baadsha Said :


थैंक्स डिअर! तुम्हे क्या लगता है, मुझे अपने लेखन में जारी रहना चाहिए?

Baadsha Said : Baadsha Said : > bilkul... 100% jari rehna chahiye. mujhe aapki lekhani bahut achchi lagti hai. bhasha pe aapki jo pakad hai woh bahut hi majboot hai. aur aap jo beech-beech mein apni lekhani mein ek akkhadpan/tethpan dalte hain to aur bhi achcha lagta hai. mujhe yakeen hai ki dhire-dhire aur log aapki lekhani se wakif hoyenge aur pasand bhi karenge.

 मुझे कुछ ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा थी। तुम्हारे इस सहयोग और भरोसे का शुक्रिया।
_________________________23`FEB`13
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  • Niloy Ranjan Chakraborty Kya kahoon??? Main pahle hi kah chuka hoon ki apki lekhani aur hindi bhasha per apki pakad bahut achchi hai. Aapke ka likha hua padhna achcha lagta hai. Yeh bi achcha laga halanki main kuch baaton se ittefaq nahi rakhta lekin aap is lekh mein pehle hi bataa chuke hain ki yeh aapke mann ki hai aur main is baat ki izzat karta hoon.
  • श्रीकांत तिवारी पुत्तर जी ! प्लीज, एक्सप्लेन! अच्छी कमेंट प्रोत्साहित कर मार्गदर्शन कराती है। निष्पक्ष बेबाक कमेंट रास्ते पर लाती है। मैं भटकना नहीं चाहता इसलिए जिन बातों से तुम इत्तेफाक नहीं रखते उन्हें मेरे साथ यदि ओपन्ली नहीं तो -(मेसेज बॉक्स)- के थ्रू या और माध्यम...See More
  • Niloy Ranjan Chakraborty Mama, main jaldi bataoonga. Woh kya hai ki mujhe likh kar apni baat bataane me waqt lagega. Mujhe likhne ki aadat jo nahi hai. Lekin kuch aisa serious nahi hai. Aapke lekh ki mool baat se main jaroor ittefaq rakhta hoon.
  • श्रीकांत तिवारी जल्दी बताना पुत्तर जी, सस्पेंस से जान निकली जा रही है।


  • 05:57PM Ldga/Jh/India.23`01`2013
    बादशा..........!  इसे पढो। क्या यही बात है, जो तुम कहना चाहते हो :>
    ...कोई जब तरक्की उन्नति कर ऊंचे पायदान पर कदम रखता है तो वहाँ के नए और पहले से ही फले-फूले उन्नत समाज से उसका सामना होता है। अब चूंकि वही उसकी दुनिया है तो जाने-अनजाने या विवशता से उसे वहाँ के कल्चर, ट्रेडिशन और तौर-तरीके को अपनाना ही पड़ता है, क्योंकि इसके बिना उसकी गति नहीं। कोई छोटे से शहर से बड़े शहर जाता है तो अपनी इच्छा के खिलाफ जाकर भी उसे वहाँ के शहरी जीवन को अपनाना ही पड़ता है, क्योंकि इसके बिना वहाँ उसकी गति नहीं। इसी तरह कोई छोटा कलाकार अपनी कला के दम पर बड़े और पहले से ही बुलंदी के मंचों पर आसीन, पूर्वस्थापित और बुलंद कलाकारों की जामात में जाकर मिलता है तो उसे अपनी कलात्मक रूचि के कारण उनके साथ स्वाभाविक तारतम्य स्थापित करना ही पड़ता है, या हो ही जाता है। और आज के आधुनिक युग में भाषा के आधार पर यूँ छटनी-करण ठीक नहीं जैसा की मैंने भोजपुरी कलाकारों के इंग्लिश ज्ञान पर कटाक्ष कर दिया है। अमिताभ बच्चन के पिताजी तो हिंदी भाषा के साहित्यकार होने के बावजूद विदेश से पी.एच.डी. करते हैं  However from 1941 to 1952 he taught in the English Department at the Allahabad University and after that he spent the next two years at St Catharine's College, Cambridge, Cambridge University doing his doctoral thesis on W.B. Yeats. Harivanshrai’s thesis got him his PhD at Cambridge. तो ऐसे पारिवारिक वातावरण में साहित्य की उपासना तो होगी ही। चाहे वो किसी भी भाषा में हो। भाषा का बैरियर लगाकर किसी की खिल्ली उड़ाना ठीक नहीं। आज का भोजपुरी कलाकार अगर भोजपुरी गाते हुए कभी इंग्लिश बोलता है तो इसमें क्या बुराई है। ऐसा करके उसने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया जो मैंने उनके बारे में तल्ख़ बातें लिख दीं जो मुझे उच्च विचार का नहीं बल्कि संकीर्ण विचार का व्यक्ति साबित करती है। अमित जी और बॉलीवुड के सितारे इंग्लिश बोलें तो ठीक; भोजपुरी वाले बोल दिए तो गलत!?_ये ठीक नहीं। और चूँकि तुम मुझसे प्यार करते हो सो तुम्हें मुझसे ऐसे कमेंट्स की उम्मीद नहीं थी। तुम चाहते हो कि मैं अपने विचारों को भले हिंदी में लिखता हूँ, लेकिन इसके साथ ही मुझे अपनी सोच को व्यापक करना होगा। सबके लिए, सभी भाषा के लिए सम्मान का नजरिया रखना होगा तभी कोई बात बन पाएगी, अन्यथा मेरी दुसरे लोग ऐसी आलोचना करेंगे कि मुझे वापसी का दरवाज़ा ही देखना पड़ेगा। क्योंकि लेखन क्षेत्र में ऐसे संकीर्ण विचारों के लिए कोई जगह नहीं। और यही बात कांटे की तरह मेरे अपने अजीजों को भी चुभेगी कि आज दौर में भी मैं इतना पढ़-लिखकर अपनी सोच इतनी छोटी रखता हूँ। ___यही बात थोडा दर्द दे गई। है न पुत्तर जी?
    अब देखो उपरोक्त भी तो मैंने ही लिखा है ना! मेरी अपनी ही बातों में कितना विरोधाभास है। पर यह बात तुम्हारे ज़रा सा हिंट देते ही मेरे लिए चुनौती बन गई; फलतः मैंने अपने "...मन की" को सुधारा तो नहीं; उसके बदले एक नई पोस्ट की रचना की ताकि ये रिकार्ड रहे। मुझे तुरंत ही पूरा अहसास हो गया कि कहाँ चूक हुई है!! अभी तो मैंने ऊँगली पकड़कर चलना शुरू किया है, इसलिए मुझे चाहिए कि मैं अभी और अध्ययन कर लूं।
    मैंने पहले ही कहा है जिस मन से प्रशंशा सुनते हैं, उसी मन से आलोचना भी सुननी चाहिए। इसीलिए तो आपको दोस्त माना है, प्यारेलाल।
    _श्री . 


    Thursday, January 24, 2013

    Srikant Mama,

    जिन से तुम इत्तेफाक नहीं रखते वो बतलाने वाले थे, मैं प्रतीक्षा में हूँ।


    Srikant Mama,
    Main aapke mool baat, jispe aapne yeh lekh likha hai, se puri tarah sahmat hoon. Hindi bolne aur likhne walon ko nichi nazar se dekhne waale log khud apne mansik diwaliyepan ka parichay dete hain. ismein koi do raiy nahi ki aise log padhe likhe ganwar hote hain jo khud ko intellectual samajhte hain, lekin asal mein agyani hote hain.
    khair yahan ye jawab likhne ka karan yeh hai ke main aapke do baaton se asahmat hoon.
    1. angreji aksharawali ke akshar ko hindi likhne ke liye istemal karna kahin se bhi hindi ka apman nahi hai balki yeh to samman ki baat hai ki apke paas angreji akshar rahne ke bawjood aap unka istemal hindi likhne mein kar rahein hain. Aaj kal ke bhag daud ke is daur mein hamesha hindi aksharawali mein likh pana mumkin nahi ho sakta, khas kar aap jab electronic samaan istemal karte hon. yeh baat to aap bhi manenge ke hindi mein type karna angreji mein type karne se jyada mushkil hai aur waqt bachane ke liye bahut baar aisa karna padta hai. main to hamesha hi yeh karta hoon kyonki pehli baat to mere computer pe hindi fonts nahin hai, jo ki main asani se rakh sakta hoon, aur doosri baat hindi type karne mein thoda samay to lagta hai kyunki uski practice nahi hai. ab aap kah sakte hain ki yeh kaunsi badi baat hai, practice karlo. lekin mera kaam aisa hai ki mujhe angreji mein hi hamesha type karna padta hai aur agar main hindi practice karron to mere liye apne ungliyon mein samanjasya baithana mushkil ho jaige. duniya mein shayad bahuit kam typist honge jo alag alag bhashaon mein utni hi asaani se type kar lete hain. Main bas yahi kahna chahta hoon ki bahut log aisa hindi ka apmaan karne ke liye nahi balki majboori mein karte hain.

    2. Doosri baat jisse main sahmat nahi hoon, woh apka yeh kehna ki ab aap angreji sikh nahin sakte. mujhe maloom hai ki aap angreji samajh bol lete hain, phir bhi main yeh kahoonga ki sikhne ke liye to koi umar nahin hoti. hindi ka man samman apni jagah hai aur rahega lekin angreji sikhne se hindi ka man samman nahi chala jayega. jaise hindi hamari rashtrabhasha hai aur hamein yeh aana chahiye waise hi is yug mein tarraki ke liye angreji aanaa bahut jaroori hai. yeh globalization ka zamana hai aur aap apne aapko ek jagah baandh ke nahin rakh sakte hain. aapko aage bdhna hai to yeh bhashaa to sikhni padegi. apni bhashaa jante hue kuch aur bhashayein sikhne mein koi burai to nahi hai. aur sikhne ki koi umar nahi hoti. main isliye bhi yeh kah raha hoon ki agar kisiko angreji ka gyan nahin hai to use higher studies karne mein bahut pareshani hogi kyunki aage ki padhai ke liye jaroori kitabein shayad hi aapko hindi mein milengi. kahin bahar jakar naukri karne mein bahut pareshani hogi. duniya ke alag alag hisson ko samajhne mein bahut pareshani hogi.
    bas wahi lik raha tha
    main bas yehi kehna chah raha tha ki koi bhi cheez agar sikhne mile to sikhna chahiye aur uski koi umar to hoti nahi hai. isliye aapka yeh kehna ki aap sikh nahi sakte se main sahmat nahi hoon.

    kuch amitji ki ke baare me kahi baaton se bhi main sahmat nahi hoon per woh baatein discuss karna jaroori nahi hai.
    Chat Conversation End.
    थैंक्स डियर! 100% agreed !! एक बात साफ़ कर दूं जो कि असलियत है :_"मुझे हिंदी टाइपिंग बिलकुल नहीं आती। हिंदी मैंने सीखा ही नहीं है, न ही इसकी ट्रेनिंग ली है।_"  "ये सब मेरे ब्लागस्पाट पर कम्पोजिंग करते समय खुद हो जाता है, वर्ना मेरे सामने भी वही मजबूरी है जो तुम्हारे सामने है। मैंने बताया हुआ है कि पहले इसकी उपलब्धता न रहने के कारण मुझे भी बातें इंग्लिश keyboard पर ही ठोकनी पड़ती थी। जबसे google  पर अपना ब्लॉग मैंने बनाया है तो उसमे ये सुविधा है कि  '-जब इंग्लिश कीज़ पर हिंदी के शब्दों को टाइप किया जाता है तो वो ऑटोमेटिकली "देवनागरी" में प्रकट हो जाता है। ऐसा होता पाकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि अब ऐसे softwares उबलब्ध हो गए हैं। जिसे प्रयोग में लाने से अपनी मातृभाषा के शब्द देवनागरी लिपी में आसानी से लिखे जा सकते हैं। बस जरूरत है स्पेलिंग के लिए सही कीज़ पंच करना। बाकी अपने-आप हो जाता है। पर अफ़सोस  है कि इसे DOWNLOSAD करके INSTALL नहीं किया जा सकता।"
    और ये सच्ची बात है प्यारे, कि मैं स्पोकन इंग्लिश नहीं सीख पाऊंगा। मैं थोडा कमज़ोर स्टूडेंट रहा हूँ। स्कूल में मुझे इंग्लिश में 100 में 80 नबर आते थे वो और बात है पर प्रैक्टिकल लाइफ में इसे बोलना पड़ा तो मैं असक्षम सिद्ध हुआ। """खफा होकर मैंने अब अंग्रेजी को गरियाना शुरू किया ऐसी बात नहीं है। वो दूसरे ज़ज्बे की बात है जो राष्ट्रभाषा के समर्थन में मैंने अपनी आवाज़ लगाईं है।""" इंग्लिश बोलना सीखने की तमना मेरी तभी पूरी हो पाएगी जब मैं इंग्लिश वातावरण में इंग्लिश बोलने वालों की संगत में 1-2 साल समय बिताऊं। ऐसा हो नहीं पायेगा। यही मेरी मजबूरी है। इसीलिए मैंने कहा की अब मैं अंग्रेजी सीख नहीं सकता।

    मैंने अपने बच्चों को खुद इंग्लिश सिखाया ताकि वो आगे बढ़ सकें। मैंने लोहरदगा में स्पोकन इंग्लिश कोचिंग इंस्टिट्यूट की स्थापना की थी ताकि अपने शहर में इसे बढ़ावा दूं; लेकिन एक वाहियात गद्दार ने मुझे ऐसा धोखा दिया जिसके ज़ख्म अभी भी ताज़ा हैं, जिसके कारण मेरे पुत्र सामान कमल को ताजिंदगी शर्मिंदगी का भागी बनना पड़ा। मैंने अपने इंस्टिट्यूट में खुद गद्दी की नौकरी करते हुए 6-महीने विद्यार्थियों को इंग्लिश-ग्रामर की शिक्षा दी जिसे जारी रखने का प्रयास किया (जिद्द किया) जो खेद है, मुझसे पूरा न हो सका। अंततः मुझे इंस्टिट्यूट बंदकर लाखों रुपयों का नुक्सान झेलना पड़ा। मैंने पहले ही कहा मैं तुम्हारी बात से 100% सहमत हूँ। मैं बच्चों को हमेशा हरदम ये कहता हूँ कि अपने सपने सच करने हैं तो इंग्लिश, गणित और साइंस(विज्ञान) पर अपनी मज़बूत पकड़ बनानी ही होगी, एक समय कम खाओ पर अपनी जिद्द मत छोडो। इंग्लिश ग्लोबल लैंग्वेज है इसे अपनाए बगैर तरक्की मुमकिन नहीं। मुझे ख़ुशी है कि जिम्मी, सन्नी ने ऐसा कर दिखाया लेकिन लड्डू (बेचारा) भाइयों के बाहर चले जाने के कारण अकेला पड गया। थोडा नहीं बहुत कमज़ोर है। और इंग्लिश इसकी सबसे बड़ी समस्या है। अब 1-महीने के बाद इसकी 10वीं बोर्ड की परीक्षा है। 
     उम्मीद करता हूँ आगे भी तुम्हारा समर्थन और प्यार मेरे प्रति बना रहेगा। सुप्रिया ने लेख पसंद किया, उसका कमेंट उत्साहवर्धक है, ठीक उसी तरह जैसे तुम्हारा। थैंक्स अगेन! 

बचपन की याद से स्फूर्ति

23,फ़रवरी,2013 बुधवार लोहरदगा

बचपन की याद से कितनी स्फूर्ति आ जाती है!!
मुझे याद है जब मैं बिछावन पर आराम करते बाबूजी की देह पर कैसे चढ़कर उनके गुदगुदे पेट पर बैठ जाता था! बाबूजी मुझे अपनी छाती से भींच लेते थे। इस क्रम में उनकी बनियान ऊंची सरक जाती थी, उनका गोरा पेट और उनकी नाभि नुमाया हो जाती थी। मैं बालसुलभ चंचलता से उनकी नाभि में ऊँगली डाल देता था, बाबूजी गुदगुदी के मारे हँसते हुए बेहाल हो प्रेम से मुझे चूमते और नाटकीय तरीके से मुझसे कुश्ती लड़ने लगते थे। वे मुझसे हारने का ड्रामा करते और मुझे अपने गँवई अंदाज़ में भोजपुरी के कहावात दोहे के रूप में सुनाते थे :
 "सात भँईंस के सात चभ्भुक्का, सोरह सेर घीऊ खाऊं रे।
 कहाँ बाड़े तोर बाघ मामा, एक तकड़ लड़ जाऊं रे।।"
.....यह याद आते स्वतः मन मुस्काने, ...पर दिल रोने लगता है। अल्पायु में ही हमने अपने बाबूजी को खो दिया। इसके लिए ऊपर वाले से मुझे हमेशा शिकायत बनी रहेगी।

आज गद्दी में स्वर्गीय शिव बाबु की पुण्य तिथि मनाई जा रही है। जहां मेरी बैठने की जगह पर बाबूजी की तस्वीर मुझे मेरी ओर ताकती दिख रही है, वे मुस्कुरा रहे हैं।

_श्री .  

मन की.........

स्वीकारोक्ति : यह लेख लम्बा हो गया है:
गर्मी ने जोरदार धमकी दे दी है। पता नहीं इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग के लिए कथित रूप से जिम्मेवार "चतुर रामालिंगम" का हाथ है या नहीं लेकिन इस बार की गर्मी दहशतनाक होगी। तय है। 

आप जब भी इस पेज को खोलोगे मुझे प्रायः यहाँ अडिग खड़ा मौजूद पाओगे; तुम्हारे प्यार और सहभागिता के लिए..., (प्रायः ; अक्सर इसलिए कि रिज़क भी कमाना होता है, अतः हमेशा, सदा, सर्वदा जैसे वादे नहीं कर सकता)...........
मैं शब्दों के संसार में विचारने वाला स्वछन्द प्राणी हूँ, किसी भी ख़ास समुदाय, ग्रुप के तानाशाही बंधन, पाबंदी, नियम और शर्तों से परे, ...आज़ाद! ...हो सकता है मेरी ये आज़ादी आपको या किसी और को और नहीं तो औरों को नागवार और अ-संस्कृत लगे और मुझे ले डूबे! लेकिन बेझिझक-बेहिचक "एकला चोलो रे" _मेरी नीयति है, मैं इसे नहीं बदल सकता। पर, मैं लम्पट नहीं। मैं अभद्र नहीं। मैं कायर नहीं। देशप्रेम के ज़ज्बे से भरपूर! दोस्ती के ज़ज्बे से भरपूर! भाईचारे के ज़ज्बे से भरपूर। और प्यार दुलार से मजबूर.....।
अगर किसी को मुझसे दुर्गन्ध की धमकी मिलती हो, या मेरे साथ डूब जाने का खतरा सताता हो तो सबसे पहले वही मैदान छोड़ेगा, मैं नहीं।
सबसे पहले वही मुझे Unfriend करेगा, मैं नहीं।
सबसे पहले वही मुझे Unsubscribe करेगा, मैं नहीं।
मुझे शब्दों से न हटा सकोगे मित्रां! मैं तो इतना प्यारा हूँ कि प्यार से ही मर जावांगा।
"यारां नाल बहारां मेले मित्तरां दे"-पे में कुर्बान भी हो जाऊं तो कोई गम नहीं।

अंग्रेजी ज्ञान पर होती हिंदी की उपेक्षा के सन्दर्भ में मैंने पिछले दिनों अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किये थे; जिनमे आज कुछ नये शब्द जोड़ रहा हूँ: मुझे झेल सकते हो झेलो __ वर्ना कोई बंधन नहीं।

मुझे हैरत है इन नामोंनिहाद, मशहूर-ओ-आम शुद्ध भारतीय सुपर स्टार्स से,चाहे वो किसी भी क्षेत्र के हों, की अंग्रेजी-प्रेम और हिंदी की उपेक्षा पर! कई ऐसे लोग जो खाते तो हिंदी का हैं पर गाते हैं अंग्रेजी का, अंग्रेजी बोल कर। हिंदी में सवाल करो वो अंग्रेजी में उत्तर देते हैं। फिल्मों की नगरी में सिवाय अमित जी, जो स्वयं हिंदी के बड़े विद्वान् फ़िल्मी हस्ती हैं, धरम पा जी और दिलीप साब (जो बड़ी उम्दा उर्दू बोलते हैं) और कुछ अन्य लोगों की तरह जो अपनी मातृभाषा की खूब कद्र जानते और करते हैं को छोड़ कर, बाकी के सारे के सारे हिन्दुस्तानी नामचीन हस्ती जो हिंदी क्षेत्र  के हैं पता नहीं क्यों अंग्रेजी के भूत से इतना डरते हैं कि उसकी गुलामी करने और उसका मैला चाटने से बाज़ नहीं आते। फिल्म 'कहानी'(विद्या बालन वाली) की पार्टी के विडियो में भोजपुरी फिल्म के एक सुपरस्टार ने फिल्म की तारीफ़ अंग्रेजी में यूँ करते नज़र आते हैं जैसे अब उन्हें बिहारीपन से मुक्ति मिल गई हो और अंग्रेजी बोलकर वे जताना चाह रहे हों कि -'हे बॉलीवुड भगवान् मैंने तुम्हारे लिए ही तो भोजपुरी को माध्यम बनाया था, अब तो मेरी तरफ अपनी नज़रें ईनायत करने की कृपा करो, देखो अब तो मैं भी फर्ल-फर्ल अंग्रेजी बोलने लगा!!" जबकि इस फिल्म के निर्देशक सुजॉय घोष बिना हिचके अपने बंगाली होने के बावजूद कभी हिंदी में भी बोलते दिखे। भोजपुरी लोक गीतों की एक गायिका ने नाम-मशहूरियत-दौलत से मालामाल होने के बाद जब अपना पहला इंटरव्यू दिया तो कैमरे को देखते ही उनकी भंगिमा बदल गई, जैसे शिकायत कर रहीं हों कि मरदूद अभी तक कहाँ क्या कर रहा था! फिर जब सवाल पूछे गए तो उनके मुँह से अंग्रेजी की धार फूट पड़ी, यूँ बोलीं जैसे मडोना को मुँह चिढा रहीं हों। _हैं न अंग्रेजी की महीमा?

 इसी महिमा की रोग से ग्रसित मैं खुद भी हूँ। जब आप मेरे पोस्ट्स पढ़ रहे होते हैं तो उनमे मेरी अभिव्यक्ति में आपको हिंदी फ़ॉन्ट्स में इंग्लिश के शब्द मिलते हैं, उर्दू और एकाध बार पंजाबी के शब्द भी मिलेंगे। वो इसलिए कि पढने-लिखने की रुचि के सन्दर्भ में मैं जैसे लेखकों को पढता हूँ उनमे सबसे सर्वोत्तम अभिव्यक्ति- अंदाजेबयां की शैली श्री सुरेन्द्रमोहन पाठक सर की है, जिनके 'सुनील'/'विमल'-सीरिज़ में चार भाषाओं की स्वादिष्ट चासनी होती है। सुनील सीरिज़ में रमाकांत की वजह से जो पंजाबी है, और जिसकी हिंदी थोड़ी कमजोर है लेकिन हँसी-ख़ुशी के जो फव्वारे फूटते हैं वह शाश्वत (सच्ची/निर्मल) प्रसन्नता बिखेरती हैं। इसी क्रम में 'विमल सीरिज़' में खुद विमल जो असलियत में सरदार है, सिक्ख है, की वजह से पंजाबी और गुरुवाणी पढने को मिलते है। मेरी पुस्तकों की अलमारी में आपको पाठक सर के उपन्यासों की बहुलता के बीच -सिडनी शेल्डन, डैन ब्राउन, जेम्स पीटरसन, और स्टीफन किंग, डेविड बाल्डाक्की की किताबें भी दिखेंगी। जिनमे सिडनी शेल्डन की प्रकाशित सभी सतरहों (17) उपन्यास मैंने पढ़े हैं। डैन ब्राउन की अभी तक प्रकाशित पाँचों उपन्यास मैंने पढ़ी है। जेम्स पीटरसन की कहानियों पर हॉलीवुड में फिल्मे भी बनी हैं लेकिन खेद है उनकी लेखन शैली में मुझे मज़ा नहीं आया। दाम वसूलने की जिद में किसी तरह इन्हें झेला। और स्टीफन किंग साहब से मैं विनम्रता से माफ़ी चाहूँगा,.....1-2 चैप्टर से ज्यादा मुझसे नहीं पढ़ा गया, क्यों? भई ज़रा-सा भी कुछ समझ में ही नहीं आया। जबकि हॉलीवुड के ये बड़े दुलारे "हॉरर" लेखक हैं। उनके 2-उपन्यास अभी भी नये के नये यूँ ही पड़े हुए हैं। इसी तरह अमिताभ बच्चन का प्रशंसक होने के बावजूद मैं उनके ब्लॉग को नहीं पढ़ पाता, _बड़ी भारी अंग्रेजी लिखते है। यदि अमित जी अपने ब्लॉग पर हिंदी में लिखें तो इंग्लिश का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर हिंदी का बहुत कुछ संवर जाएगा। डैन ब्राउन के लेखन में गज़ब की कशिश है! इन्ही साहब की लिखी 'रॉबर्ट लैंगडन' सीरिज़ की सभी तीन उपन्यासों पर हॉलीवुड में फिल्मे बनी, अलबत्ता तीसरी 'दी लॉस्ट सिंबल' अभी प्रदर्शित नहीं हुई है। इनके छठे उपन्यास के लिए इनके विश्व व्यापक फैंस में भारी बेचैनी है। सिडनी शेल्डन की 17-हों उपन्यास मुझे पसंद आईं। और अपनी पसंद मैं रिपीट कर पढता ही रहता हूँ। जिनमे सबसे ज्यादा मुझे मेरी अपनी मातृभाषा हिंदी में पाठक सर को मैं रोज़ पढता ही रहता हूँ। इसी वजह से मेरी भाषा में कहीं-कहीं पाठक साहब का प्रभाव है। और इसपे मुझे फक्र है। ये पाठक सर की लेखनी का ही ज़हूरा है कि बचपन की फंतासी (तिलस्मी) दुनिया से बाहर निकलकर मुझे यथार्थ के धरातल पर आना नसीब हुआ, 'मीना मर्डर केस' नामक सुनील सिरीज़ का उपन्यास जब मैंने पढ़ा था तब आवाक रह गया था। इसी उपन्यास के कारण मैं पाठक सर का मुरीद बना। इस उपन्यास के कथानक ने मुझे ऐसा झिंझोड़ा झकझोरा जिसके वजह से हिंदी क्राइम फिक्शन नोवेल्स पढने के मेरे सारे कांसेप्ट को बदल कर रख दिया। साहबान, वो दिन है और आज 'सीक्रेट एजेंट' का दिन पाठक सर के अलावे हिंदी क्राइम फिक्शन के किसी दुसरे लेखक के उपन्यास को मैंने छुआ तक नहीं, और आइन्दा आगे ऐसा होगा भी नहीं।

समय के साथ-साथ मुझे कई विषयों में रूचि हुई जिसके अनुसार मेरे पास ग्रंथों के अम्बार जमा होने लगे। आध्यात्म में रूचि हुई तो उस सन्दर्भ के ग्रंथों की संगत हुई। कई 'पुराण', 'श्रीमद्भागवतगीता' की कई टीकाएँ, 'श्रीशुकसुधासागर', 'महाभारत', 'वाल्मीकि रामायण', 'आध्यात्म रामायण', तुलसीदास जी की 'रामचरिमानस', तुलसी साहित्य की 'मानस रहस्य' और अनेक तुलिदासविरचित रचनाएं, और भी कई प्रकार के गीताप्रेस की किताबें मैंने पढ़ी। साहित्य के लिए मुंशी प्रेमचंद जी की 'गबन', 'गोदान' तथा और भी कई कहानी संग्रह पढ़े, रामधारी सिंह दिनकर की 'रश्मिरथी' अभी भी पढता हूँ, बच्चन जी की कालजयी 'मधुशाला' भी जब मन करे पढने लगता हूँ।

आप पूछ सकते हैं कि जब मुझे अंग्रेजी नहीं आती तो तक़रीबन 25-30 इंग्लिश के उपन्यास मैंने कैसे पढ़ डाले? जबाब है_ 1. रूचि, 2. उत्सुकता। और मेरी पहली रुचि के पीछे मेरे पुत्र प्रितीश हाथ है। जब मैं एकबार हॉलीवुड की फिल्म "दी डा विन्ची कोड" हिंदी में (डब) देख रहा था तब उसने कहा था कि वो इस फिल्म की मूल कहानी जिसपे ये फिल्म बनाई गई है उसकी पढ़ी हुई है। मैंने कोई ध्यान नहीं दिया था। इंजीनियरिंग में उसके सिलेक्शन के बाद काउंसलिंग के लिए उसे लेकर 2009 अगस्त में जब मैं कोलकाता गया था, तब लौटने के क्रम में कोलकाता ट्रेन स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर रात के वक़्त हम अपनी ट्रेन लेट होने की मजबूरी में वक़्तगुजारी के लिहाज़ से एक बुक स्टाल पर जा खड़े हुए। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि मुझे पाठक सर की लिखी नई पुस्तक 'प्यादा' मिल गई थी।  तभी प्रितीश (जिम्मी) ने मुझसे कुछ पैसे मांगे, मैंने पूछ क्यों, तो वो मेरा हाथ पकड़कर वापस बुक स्टाल तक ले गया। उसने मुझे इंग्लिश की एक उपन्यास दिखाई और बोला कि वो इसे खरीदना चाहता है। मैंने उसे वो उपन्यास ले लेने दिया। वो था डैन ब्राउन का लिखा "ऐजेल्स & डीमन्स"! उसने उसी वक़्त मुझसे कहा कि मैं उसे पढूं। मैंने कहा -'बेत्त! हमरा बुझैतई?' उसने कहा -'आप पढ़िए तो!" मैंने कोशिश की, जिसका परिणाम ये हुआ कि पूरे सफ़र में मैं उससे पूछता रहा कि उसका पढना पूरा हुआ या नहीं!? ताकि मैं पढ़ सकूँ! बचपन से ही सस्पेंस, थ्रिलर और रहस्य कथाओं का रसिक हूँ। डैन ब्राउन ने बड़ी ही सरल और सहज ही समझ में आने लायक शब्दों और वाक्यों का प्रयोग किया है। और यह उनके सभी उपन्यासों में है। उनकी लेखन शैली मुझे खूब भाई। उनके उपन्यासों में 'डिसेप्शन पॉइंट' मुझे अलग से पसंद है क्योंकि 'इस उम्र' में मेरी धड़कन फिर से धक्-धक्' हुई थी, सस्पेंस से!! इसी प्रकार सिडनी शेल्डन भी सरल इंग्लिश लिखते थे। हिंदी लेखकों ने इनकी कहानियों के कई सीन अपने उपन्यासों में सेम-टू-सेम (पात्रों और स्थान का नाम बदलकर) उसे अपनी सोच के मुताबिक कॉपी किया है। दुःख है 2005 में उनका निधन हो चुका है। क्राइम क्वीन अगाथा क्रिस्टी की 'हरक्युल पोइरोट' सिरीज़ के 4 ही उपन्यास मैंने पढ़े हैं। अगाथा क्रिस्टी के बारे में विख्यात है कि ससार में अब तक बाइबल के बाद सबसे ज्यादा इन्हीं के उपन्यासों की बिक्री हुई है जो एक रिकार्ड है। इसके बावजूद -धन्य हो देवता!- मुझे अंग्रेजी लिखना-बोलना नहीं आया और आइंदे शायद आएगा भी नहीं।

अंग्रेजी जानना और बोलना कतई बुरी बात नहीं, न ही मैं इसके खिआफ़ किसी प्रकार का जिहाद कर रहा हूँ। खुद मेरे अपने बच्चे, और नाते रिश्ते के कई लोग इंग्लिश माध्यम के छात्र रहे हैं जिन्हें कभी-कभी हिंदी की शब्दावली ज्यादा भारी लगती है। मेरी भांजी रिम्पी(प्रियंका) के पति मेरे दामाद उदयन जी बंगाली हैं फिर भी उन्हें हिंदी तो क्या बंगाली पढने में भी दिक्कत होती है, जिसके लिए उन्हें अफ़सोस है कि वे मेरे पोस्ट्स नहीं पढ़ पाते। पर वे हिंदी को नीची निगाह से नहीं देखते। न समझने पर उत्सुकता से मतलब पूछ लेते हैं। अभी हाल ही में मैंने प्रितीश को अपना लिखा लेख 'सूरज और प्रहरी' पढ़कर उसपर कमेंट करने को कहा। उसने खूब मन लगाकर पढ़ा। मैंने पूछा -'कैसा लगा?' उसने कहा -'बढ़िया! लगता है जैसे कोई सुरेन्द्रमोहन पाठक के बहुत "दीवाने" फैन ने लिखा है।' मैं खुश हो गया। थोड़ी ही देर उसने बड़ी मासूमियत से पूछा -'ये "प्रहरी" क्या होता है?' अब आप ही सोचिये कि मेरी क्या हालत हुई होगी। ये परिणाम है अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा का! उसकी अभिव्यक्ति इंग्लिश है, वो उसकी ख़ुशी। मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम हिंदी है, मेरी ख़ुशी।

मुझे गर्व है की मैं हिंदी भाषी हूँ। हिन्दुस्तानी हूँ, हिंदी बोलता हूँ, हिंदी पढता हूँ, हिंदी लिखता हूँ।

मैं एक बेहद मामूली आम आदमी हूँ, मैंने अपनी शिक्षा के माध्यम से कोई भी गौरव हासिल नहीं किया है। इस हिसाब से मैं खुद को एक अशिक्षित [uneducated] ही कहूँगा। अतः क्या मुझे डर के मारे अपना मुँह लपेट कर किनारे जा बैठना चाहिए!? न बोलूं, लिक्खूं, न किसी तरह का प्रतिवाद करूँ, न ज़ुल्म की मुखालफत करूँ, न अपनी बात कहूँ, न अपनी पसंद-नापसंद को ज़ाहिर करूँ! क्या ये ठीक रहेगा? एकबार एक बन्दे ने इंग्लिश में कई शब्दों को एक साथ जमा करके मुझे कोसा, मेरी निंदा की और खूब अपनी भड़ास निकाली और ऐसा कर उन्होंने खुद अपनी पीठ थपथपाई। वो "निन्दीय निंदा" अभी भी मेरे पास है, मेरी बहुमूल्य संपत्ति की तरह। यह मेरी सबसे बड़ी कमाई है, क्योंकि 'निंदक नियरे राखिये' पर मेरी श्रद्धा है। पर क्या फायदा? इंग्लिश तो मुझे आती ही नहीं! और इन शब्दों के मतलब डिक्शनरी में खोजते फिरने की किसे फुर्सत है!? आज भी कभी उस पृष्ठ को देखता हूँ तो सोचता हूँ लिखकर पोस्ट करते वक़्त ये ज़नाब कितने खुश, और स्वाभिमान से भरे होंगे। उनकी ये ख़ुशी बनी रहे। पर उस पन्ने पर उस बन्दे की लिखावट का मतलब समझने के लिए मैं तो अब अंग्रेजी सीखने से रहा।

आप बाज़ार से कोई सामान खरीदते हैं तो अपनी जेब से उसका मूल्य चुकाते हैं। सामान पसंद आती है तो उसकी तारीफ़ करते हैं, नहीं पसंद आती तो शिकायत करते हैं। और ये मेरा हक है कि मैं अपनी नापसंदगी खुलकर ज़ाहिर करूँ। ऐसा करने वाला क्या इस सृष्टि पर मैं अकेला व्यक्ति हूँ? अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं। इससे किसको इनकार है! मेरा परिवार, मेरा पूरा जीवन इस बात का साक्षी है कि अमित जी मेरे लिए क्या हैं। पर मैं यह कहने और मानने से पीछे नहीं हटूंगा कि उन्होंने भी फ्लॉप फ़िल्में दीं हैं। कुली फिल्म के फाईट सीन को फिल्माते वक़्त वे घायल न हो गए होते तो आप ईमानदारी से सच बोलिए - कहिये उसमे ऐसा क्या था जो पसंद के लायक था। सिर्फ एक चीज़ अच्छी थी। अमित जी की शानदार पर्सनालिटी। उसके बाद क्या ये सच नहीं है की उनकी फ़िल्में लगातार फ्लॉप होती चली गयीं? इससे क्या हम सुखी हो गए थे? जी नहीं। खून के आठ-आठ आँसू रोते थे, और कामना करते थे कि अब...अब...अब अमिताभ फिर दहादेंगे। पर कुली से शुरू हुई उनकी फिल्मों की क्वालिटी की गिरावट सन 2000 ही में संभली। तबतक जवानी की कई बहारें वो गंवा चुके थे। अगर यह झूठ है तो साबित कीजिये। क्योंकि मैंने पहले ही इसी ब्लॉग के शुरूआती पृष्ठों में अपनी कही बात को साबित किया हुआ है। खोलो WIKIPEDIA! देखो उसमे अमित जी की फिल्मोग्राफी! हर साल के साथ उनकी प्रदर्शित फिल्मों की कहानी छापी हुई है। और जैसे-जैसे उनकी फ़िल्में प्रदर्शित होतीं गईं अपनी उम्र और कक्षा के साथ हम भी बड़े होते गए। ये सारी हिस्ट्री मैंने विस्तार से "अमिताभ बच्चन और मैं" शीर्षक के अंतर्गत लिखा हुआ है जो इसी ब्लॉग पर अभी भी मौजूद है। कौन हिट, कौन फ्लॉप, सब सामने आ जाएगा। सबसे बड़ा सुबूत तो अमित जी स्वयं हैं जो अनेको बार उन्होंने खुद ये बात स्वीकार की है। पर क्या उन्होंने उसमे मेहनत और लगन से काम नहीं किया था!? क्या वो 'नेम-फेम-मनी' के मारे बौरा गए थे? जी नहीं! ऐसा उनकी उस वक़्त की बदकिस्मती के सिवाय और कुछ नहीं था। 'सिलसिला' के बाद स्वर्गीय यश जी ने भी अमित जी के साथ कोई फिल्म नहीं की। जो 'दीवार', 'कभी-कभी', 'त्रिशूल', 'काल पत्थर' जैसी वो फ़िल्में दीं जिनमे 'विजय' बने अमिताभ के किरदार भुला पाना असंभव है। क्या ऐसी सफलता अमित जी ने फिर कभी रिपीट करी? की हो तो बताओ! मैं आपको चुनौती देता हूँ। ...पर खेद है ऐसा है ही नहीं कि मैं मेरी बात झूठी हो जाय। 'सलीम-जावेद' की जोड़ी टूट गई थी। बदकिस्मती से कोई दूसरा कहानीकार, डायलाग लेखक वो काम कर के न दे सका, जो शोले। दीवार।डॉन। त्रिशूल। काल पत्थर। खून-पसीना। जैसी कामयाबी को दुहरा पाता। न मनमोहन देसाई और न ही प्रकाश महरा ने अमित जी की सफलता को बनाए रखा। 'मर्द' में आपको क्या भाया था? 'गंगा जमुना सरस्वती' में आपको क्या भाया था? 'जादूगर' में आपको क्या भाया था? 'तूफ़ान' में आपको क्या भाया था? 'लाल बादशाह' में  क्या भाया था? नथिंग! सभी फ्लॉप हो गए। न ढंग की कहानी थीं, न ढंग का निर्देशन! अतः नतीजा खराब हुआ। वर्ना व्यक्तिगत तौर पर आज अमित जी जितने प्यारे हैं इससे कहीं ज्यादा "तब" प्यारे थे। महान इंसान जिस शिद्दत से कामयाबी कमाता है, उसी शिद्दत से नाकामयाबी को मंज़ूर भी करता है। और अमित जी स्वयं इस बात की बेमिसाल 'मिसाल' हैं।  इसीलिए उन्हें बारम्बार मेरा सलाम है। ठीक इसी प्रकार ये मेरा हक है कि अगर मुझे सुरेन्द्रमोहन पाठक की कोई रचना पसंद नहीं आती तो अपनी नापसंदगी खुल कर जाहिर करूँ। पर ऐसा नहीं है। पाठक सर ने अभी तक जो रचा वो हिंदी क्राइम फिक्शन का इतिहास बन गया जिसमे हर उपन्यास एक मील के पत्थर की तरह अडिग खड़ा है। इसके लिए पाठक सर को मेरा सलाम।

मुझे खेद है की "अमिताभ बच्चन और मैं" की रचना करते वक़्त मेरे पास इस ब्लॉग की उपलब्धता नहीं थी, जिसके कारण मुझे रोमन फोंट्स में हिंदी लिखनी पड़ी। पर मैं कोशिश करूंगा की उन्हें देवनागरी में तब्दील कर सकूँ।

मैं सिर्फ अपने 'नायकों', भले चाहे वो किसी भी फील्ड के हों, सिर्फ ये गुजारिश करना चाहता हूँ कि वो हिंदी की नाकद्री और उपेक्षा बंद करें। इसी विषय पर मैंने कुछ लिखा है; जिसे मैंने "क्रांतिकारी सोच जो लोगो का स्वाभिमान जगा दे"/facebook  के साथ शेयर किया, जिसे सराहा गया  :>> 
  "क्रांतिकारी सोच जो लोगो का स्वाभिमान जगा दे" 
"जो लोग अंग्रेजी बोलने से खुद को विद्वान मानते हैं और हिन्दी में अपनी तौहीनी समझते हैं........वो ये जान लें कि अंग्रेज मुल्कों में Toilet साफ करने वाला भी अंग्रेजी बोलता है, अतः भाषा से किसी की विद्वता परिभाषित नही होती....

मात्रभाषा हिन्दी ही हमारी पहचान है॥जय हिन्द!".....<यह मेरी नहीं क्रांतिकारी सोच की वाणी है।
मैंने जो कहा है वो निम्नलिखित है: 

यहाँ >>> आगे मेरे विचार हैं : पढ़िए :>>>

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।"________श्री भारतेंदु हरिश्चंद्र।

 ऐसी भाषा का क्या फायदा जिसके लिए हर वक़्त डिक्शनरी खोल कर रखना पड़ता है!? जिसे आप खूब जतन से लिखें और बोलें पर उसका कोई कद्र न करे!? अच्छा है। हमारे पास विकल्प है अपनी पसंदीदा भाषा में अपनी बात कहने का मौका है। इस सुविधा के लिए जो इंजिनियर बाबू जिम्मेवार हैं उनका कोटि-कोटि नमन और अभिवादन। नमस्ते महोदय !! अंग्रेजी भले भाँड में न जाये, पर हिंदी पर ऐतराज़ बंद करे। सबसे अच्छी भाषा वही है जो आपको अपने आपको अभिव्यक्त करने का सबसे शानदार और सबसे आसान अवसर देता हो। मैं अंग्रेजी नहीं जानता, जानना चाहता भी नहीं, इसका ये मतलब नहीं कि मैं बेवक़ूफ़ हूँ। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नारा दिया था "हिंदी - हिन्दू - हिन्दुस्तान" आज के परवेश में इसे सेक्युलरवाद से जोड़कर इसकी खिल्ली उडाना सबसे आसन काम है, पर इसकी मजबूती, गरिमा और विशालता को चुनौती देना इतना आसान नहीं है। ध्यान रखियेगा, अगर आप हिन्दुस्तानी हैं।

मैं हिंदी को मानने वाला व्यक्ति हूँ। अपनी उपासना मैं हिंदी में करता हूँ। असली बात तो ये है कि मुझे ठीक से अंग्रेजी नहीं आती। आप में से कुछ लोगों के लिए मुझ जैसे अंग्रेजी न जानने वालों के लिए अस्पृश्यता (Untouchabilty / Untouchable); अछूतपन का आभास होता होगा। पर मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है। अन्य साधनों की तरह अंग्रेजी का प्रयोग मैं कम करता हूँ। और मेरा हमेशा ये प्रयास रहेगा कि में हिंदी "देवनागरी" में ही लिखुँ , और लिखुँगा। किन्हीं को ऐतराज़ हो तो अपनी स्थिति और अवस्था को पहले जांच लेवें, और आईने में अपनी शक्ल देख लेंवें। अगर हिंदी भाषी भारतीय हैं, तो आपकी मोनोदशा खेदजनक है, पर शायद इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता _ये ज्यादा खेदजनक है। मुझे अंग्रेजी नहीं आती पर आप लोगों के लेखन के खिलाफ मैं बिलकुल नहीं हूँ। कुछ जतन कर के काम चला लेता हूँ। क्योंकि चलाने की मजबूरी है। श्रीमान को सर हिंदीवाले भी बोलते हैं, इसलिए ज्यादा माथा खराब करने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। आप जारी रहिये। हिंदी की कद्र करने की कोशिश कीजिये। वैसे ये आपलोगों के लिए मुश्किल काम है। अंग्रेजी का जामा पहनकर आप खुद को परिष्कृत समझें। पर हिंदी लेखन को हिकारत से देखने की धृष्टता न करें।

 जय हिन्द। 

_श्री.