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Tuesday, January 22, 2013

"यार" पे कर दे सब कुर्बान!!"

यार के साथ मेले की बहार का मज़ा अपने घर में, या बाहर कैसे लिया जाता है इसे जानने के लिए रमाकांत मल्होत्रा 'अम्बरसरिये' नूं और सुनील को जानना बहुत जरूरी है। >>>"अमेरिका के एक नेता - Charles Evans Hughes ने एक बार हमारे जीवन में दोस्तों की अहमियत को दर्शाते हुए कहा था - "A man has to live with himself, and he should see to it that he always has good company "

पाठक सर ने भी इसी बात को दुसरे तरीके से कुछ युं कहा है -

" हमारी ज़िन्दगी में 'यार' एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल हम बहुत हल्के में करते हैं।..... मैं रोज़ कितने ही लोगों को जानता हूँ और फिर कितने ही लोगों से मिलता हूँ , क्या वो मेरे 'यार' हैं?
मैं अपने दफ्तर में 500 लोगों के साथ नौकरी करता हूँ - ऐसे में क्या वो सारे मेरे यार हो गए ? ......... नहीं - ऐसा नहीं है। यार वो होता है - जो आप का हमख्याल हो, हमनिवाला, हमप्याला हो। हर कोई 'यार' के दर्जे में नहीं आता। " <<<{
Kanwal Sharma फँस ऑफ़ एसएमपी के लेख से }_"यार वो होता है - जो आप का हमख्याल हो, हमनिवाला, हमप्याला हो। हर कोई 'यार' के दर्जे में नहीं आता।"....ये लाइन और पाठक सर के बोल असर कारक हैं। और इसका आभास हमें होने के बावजूद हम अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दे पाते। यह पंक्ति हमें अभिव्यक्ति के लिए वांछित शब्द प्रदान करती है। _पाठक सर को शत-शत नमन।

बाबूजी हमें छुटपन में ही ये कहकर कमांड करते थे कि -'संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात।' _बड़ी सारगर्भित और अमल के काबिल बात है। पर, हम जब कभी किसी से दोस्ती करते हैं, या यूँ कहें कि जब दो जने आपस में दोस्त बनते हैं, मित्रता का नाता स्थापित करते हैं, तब हम इस हिदायत और इसकी सारगर्भिता को पूरी तरह भूले होते हैं। उस समय एक दुसरे का साथ, उनका पास-पास होना, न होने पर एक दुसरे को मिस करना ही अहम रह जाता है। बाबूजी की बात की महत्ता फिर भी कायम रहती है क्योंकि आप अपने हमखयाल, समान रूचि वाले को ही पसंद करते हैं, इसी प्रकार अगला भी आपको पसंद करता है। आपकी रूचि आपके संस्कार के मुताबिक होती है। संस्कार परिवार से ही मिलता है। दो अनजान लोगों की मुलाक़ात होने पर जब वो एक दुसरे के साथ कुछ वक़्त गुजारते हैं तब एक-दुसरे के गुण-दोष का पता चल जाता है और यह निर्णय लेना सहज हो जाता है कि हम दोनों मित्र बने या न बने। किसी के लिए आपके मन में उसकी शक्ल देखकर या उसकी चपलता देखकर या उसका परफॉरमेंस देखकर या गुण देखकर अनुराग पैदा होता है और आप उसके मित्र बनने की ख्वाईश करते हैं तो ऐसी ही ख्वाईश जबतक आपके प्रति अगले के मन में जाग्रित नहीं होगी, दोस्ती हो ही नहीं सकती। किसी की बाँह मरोड़कर या उसके सिर पर सवार होकर, उसके पीछे पड़े रहकर उसे तंगकर, धमका कर और मजबूर कर के यह रिश्ता आप कभी नहीं जोड़ सकेंगे। इसके लिए सिर्फ एक ही रास्ता है और वो ये कि यदि आप चाहते हैं -रिपीट- आप चाहते हैं कि फलां आपका दोस्त बन जाय तो सीधे बे-झिझक, बेख़ौफ़ उसके पास जाइये और दोस्ती की पेशकश रखिये। अगर आप सोचते हैं कि कोई दूसरा जबतक आपको नहीं पूछता तबतक आप उसे कोई भाव नहीं देंगे तो यहाँ मेरा एक विनम्र निवेदन है -'सर! आप किसी की दोस्ती के काबिल नहीं। नमस्ते!' 

दोस्ती और चमचई के फर्क को समझिये। समय सबसे बड़ा और बलवान होता है, समय के साथ हमने जो निर्णय लिया होता है उसकी परीक्षा स्वतः हो जाती है कि हमारा निर्णय सही था या गलत। आप खुद ही ये समझ जाते हैं कि इस 'सम्बन्ध' की आयु कितनी है। फिर भी नहीं समझते तो बाबूजी की बात पर गौर करने की आवश्यकता आन पड़ती है, या (आपके) बाबूजी (या अन्य बड़े) यदि उपस्थित हैं तो वे चेतावनी दे देते हैं। इसके बावजूद भी आप बाज़ नहीं आते तो एक-दुसरे के लिए कष्टप्रद स्थिति का कारण बन जाते हैं, जिसका अंजाम कभी-कभी दुखद भी हो सकता है। सो, दोस्तों जब तक हम जीवित रहेंगे नीली छतरी वाला हमेशा हमारी ऐसी परीक्षा लेता ही रहेगा। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि बाबूजी की बात की आन बनी रहे। इस परीक्षा में हम कभी फेल नहीं होंगे।

"निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करत सुभाय।।" --कबीर 
(Keep your critic close to you; give him shelter in your courtyard.
Without soap and water he cleanses your character.__कबीर जी दी वाणी) _और ऐसी निंदा आपका सबसे करीबी दोस्त ही आपकी आपके मुँह पर करेगा।___पर पहले दोस्त तो बने! -रिपीट- पहले 'दोस्त' तो बने !! दोस्त बनने से पहले ही कोई अल-बल बकने लगे तो कैसे बीतेगी? किसी बड़े दिलवाले ने कहा है: _रूठो। दुश्मनी करो। पर इस तरह कि खुदा फिर से दोस्त बनने का मौका दे तो एकदूसरे के आगे शर्मिन्दा न होना पड़े।

आप किसी से प्रभावित हो कर उससे दोस्ती करना चाहते हैं पर वो आपका हमखयाल होने के बावजूद आपके प्रति इच्छुक नहीं तो मरिये मत। इस फ़ॉर्मूले पर अमल कीजिये -'तू नहीं और सही, और नहीं और सही!' दुनिया दिलवालों से खाली नहीं। यदि आपका दिल साफ़ है। आप भले हैं। दोस्ती की ख्वाईश है पर कोई दोस्त नहीं। कोई पूछता भी नहीं। इसका मतलब सिर्फ यही हुआ कि अबतक आपने कोशिश की ही नहीं, की तो दिल से नहीं की। अरे भले आदमी! ऐसा इत्तेफाक शायद ही कभी हुआ होगा या आइंदे होने वाला होगा तो होगा कि कोई खुद आपके पास आकर मित्रता का प्रस्ताव रक्खे। तुम क्या आसमान से उतरे कोई अवतारी हो, जो कोई आ कर तुम्हारे आगे लोट लगाएगा और फ़रियाद करेगा कि ऐ खुदा के बन्दे मुझे अपना दोस्त बना ले! तेरे बैठे रहने से और सपना देखते रहने से कुछ नहीं होगा। तुम हाथ आगे बढाओगे तभी तो कोई उसे थामेगा! ये सोच कर घुलने से क्या फ़ायदा कि 'हाय! कोई मुझे नहीं पूछता!' ...आ,चल उठ! अपने-आप को तौल कि तू किस काबिल है? क्या काबिलियत है तेरे में? किसी को तू जब अपना दोस्त बनाएगा तो उससे शेयर करने के लिए 'तेरे' पास क्या है? क्या अर्पण करेगा तू उसे? जब यह समझ में न आये तो थोडा ठहर जा। थोड़ी देर के लिए थम जा। आत्मविश्लेषण कर। तू जान जाएगा, तुझे उत्तर मिल जाएगा। फिर जिससे दोस्ती की तमन्ना है उससे जा के मिल। बता उसे अपने दिल की बात। बोल कि तू उसका दोस्त बनना चाहता है। फिर बाकी वो नीली छतरी वाला है न, सब ठीक कर देगा। देखना, उस वक़्त तेरे चेहरे पर कैसी लाली छाई होगी। रगों में खून जोश मार रहा होगा। रोमांच से लोमहर्षक अनुभूति के कारण तेरे चेहरे का तेज़ खिला हुआ, तमतमाया हुआ होगा। और तेरा दोस्त तुझे हासिल हो जाएगा। लेकिन ताकीद रहे _जितनी बड़ी ख्वाईश होती है कभी-कभी उतनी ही बड़ी निराशा हाथ लगती है। दोस्ती में हर वक़्त देने की, अर्पण करने की फितरत की ही अहमियत है, मांगने की, मांगते रहने की नहीं। ...इस बात की जरा व्याख्या करो बाकी समझदार हो तो खुद समझ जाओगे। तेरा दोस्त बाँहें फैलाए तरी राह में है। जाकर लग जा उसके गले।

बे-मेल लोगों में भी बेमिसाल दोस्ती हो जाती है जो ताजिंदगी कायम रहती है। किसी की शक्ल अच्छी नहीं, किसी की जात ऊंची नहीं, किसी की सामजिक अवस्था आपके बराबर की नहीं, किसी की माली हालत (आर्थिक स्थिति) बराबरी की नही फिर भी ऐसे भले मित्र हैं जो इन बातों को हिकारत की नज़र से नहीं देखते, इंसान को इंसान की नज़र से देखते और उसे अपने सान्निध्य का अवसर देकर उसे अपना मित्र बना लेते हैं। हमने अक्सर देखा है कि घमंड में कैसे-कैसे अपमानजनक शब्द बोले जाते है,-"ई...!?' '...ई छुछुंदर तोर दोस्त हउ? साला करियट्ठा! मैलाहा, पिलुवाहा ! भगाओ हीयाँ से एकरा ! अईसने-अईसने लफंगन के हे संघत में न तूं बिगड़ गेले हे !" यही छछूंदर जब फ़ौज में शामिल होकर सरहद की सुरक्षा में शहीद हो जाता है तो उसे छछूंदर कहने वालों के रंग गिरगिट की तरह बदल जाते हैं। कोई अभिनेता, खिलाड़ी या नामी हस्ती बन जाता है तो कहने वालों के बोल बदल जाते हैं। अतः ऐसी अवस्था में जब आप देखें कि यदि आपके मित्र की तौहीन हो रही है, बेईज्ज़ती हो रही है, तो उसके उन गुणों को सामने लाइए जिसके गुणों के कायल होने के बाद आपने उसे अपना दोस्त बनाया था और बकवाद करने वाले, भले चाहे वो आपके अभिभावक हों, पहले का और और और पुराना घनिष्ठतम यार! _उनकी गलतफहमी को दूर कर दीजिये, पर दोस्त को आहत न होने दीजिये। उन्हें बताइये कि ये गणितज्ञ है, वैज्ञानिक है, विद्वान् है, संगीतकार है, गायक है, कलाकार है, इंजिनियर है, कहानीकार है, लेखक है, चित्रकार है, खिलाड़ी है, बिजनेसमैन है, स्कूल मास्टर है, अभिनेता है, नेता है, पत्रकार है, वकील है, डॉक्टर है, सिपाही है, सैनिक है, मुंशी है, किरानी है, लिपिक है, दुकानदार है, चपरासी है, ड्राईवर है, माली है, दरवान है, ...और भी कुछ है या नहीं है लेकिन एक आप ही के जैसा इंसान है जो आनंद दायक मानवीय अनुभूतियों से लबरेज़ है, और दोस्ती के काबिल है और ये भी जरूर कहिये कि आपने नहीं _"उसने आपको" अपना दोस्त बनाकर 'आपका' मान बढाया है। दोस्ती की है न! ऐसे ही दोस्ती निभाई जाती है। यहाँ किसी प्रकार के विद्रोह या बगावत की बात नहीं, दोस्त की इज्ज़त की रक्षा करते हुए दोस्ती जैसे पाक और पावन रिश्ते को नयी ऊंचाई यूँ ही दी जाती है। इसके बिना इस रिश्ते की गति नहीं।
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कभी-कभी चमचों से घिरे नौजवान ख़ूबसूरत मसलमैन को उसकी चमचमाती गाडी और शख्शियत को देखते ही आप उसकी दोस्ती के लिए लालायित हो जाते हैं, और आप कामना करने लगते हैं कि अगर अब आप भी उसके दाएँ-बाएँ वाले ख़ास चमचे बन जाएँ तो आपकी तो निकल पड़ेगी। यही हो रहा है आजकल। इसी सोच से ग्रसित लोग आज देश को कलंकित कर रहे हैं।  ............सावधान! ऐसे लोगों की जामात बढती जा रही है। यह बहुत ही खतरनाक है। इसे रोकना होगा। ये लोग गुंडा एलिमेंट को बढ़ावा देने वाले नौदौलतिये हैं। पैसे और ग्लैमर के लालच के हवाले इनके चमचे उनकी शैतानी आग में अपनी चापलूसी से घी की आहूति देने जैसी वाहियात हरकत कर समाज और देश को रोजीना रुलाये चले जा रहे हैं। इनकी रोकथाम जरूरी है। वर्ना हम गए! यह संगत ही वह कुसंगत है जिससे बाबूजी हमेशा सचेत किया करते थे। ...देख लो अंजाम!! 'दामिनी' के बाद भी .........अभी भी कुछ नहीं बदला।
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दोस्त, दोस्त के काम आते हैं। किस काम आते हैं? ये भी कोई डिस्कशन की बात है! इसके बारे में क्या कहना!!

महान व्यक्ति कोई महान काम करता है तो उसे पता भी नहीं होता कि उसने कब कहाँ, क्या महान कर दिया है। किस पर कैसे, कैसी महत्ता कर दी है। उसे अपनी महानता का भान तक नहीं होता। अपने स्वभाव सुलभ महान कर्मयोग में लीन उपकृत लोगों की "थैंक्यू" उसे सुनाई नहीं देती। इसलिए वो "मोस्ट-वेलकम" भी नहीं बोलता। यूँ उसकी आलोचना भी हो जाती है,...वह मुस्कुराता रहता है। हैट्स ऑफ टू देम!

'यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी।'
'ये दोस्ती-ई, हम न...हीं छोड़ेंगे, तोड़ेंगे दम मगर, तेरा साथ ना छोड़ेंगे।'
'कुर्बानी-कुर्बानी ...कुर्बानी..ईं..ईं, अल्लाह को प्यारी है कुर्बानी ...मित्रों!_इस गाने को पूरा गाकर या सुनकर देखो और बतलाओ इसमें कौन किसके लिए किसकी कुर्बानी की बात कर रहा है? ' यारी मेरी कहती है,_यार" पे कर दे सब कुर्बान!!"
 _ऐसे ही और न जाने कितने गीत और गाने हैं जो दोस्ती, यारी को रेखांकित करते हैं, महिमामंडित करते हैं, उसका गुणगान करते दोस्ती को ही समर्पित हैं। कितने भाग्यशाली होंगे वो लोग जिन्हें दोस्ती जैसा दुनिया का सबसे अहमतरीन और पाक रिश्ता उनकी तकदीर ने उन्हें दिया होगा। माँ के बाद दुसरे नंबर पर दोस्ती की ही जगह है, बाप और भाई की भी नहीं, जिसमे कि किसी प्रकार के राज-सिंघासन, धन-दौलत और हिस्से के कारण हमेशा हरदम के कई खुरेंज़ दास्तान भरे पड़े है। पर दोस्ती इन लानतों से परे है। इसमें एक दुसरे के प्रति सिवाय एकनिष्ठ समर्पण के दूसरी किसी भेद भरी बात के लिए कोई जगह होती ही नहीं। दुई का कोई भेद नहीं होता।
_ये हमारे गीतों के अमर बोल साक्षी हैं, प्रमाण हैं इस बात का कि दुनिया में दोस्ती जैसा पावन रिश्ता सहोदर भाई जैसे रिश्ते से भी महान होता है। एक दोस्त अपने जिगरी दोस्त के लिए जो बे-झिझक कर सकता है, करता है, वह कभी-कभी सहोदर भाई भी नहीं कर पाता, पिता भी नहीं कर पाते। और दोस्ती सिर्फ एक दुसरे पर अटूट विश्वास के दम पर कायम रहती है। दोस्त एक दुसरे से जिस बे-तकल्लुफी से पेश आते हैं, एक ही थाली में खाना खाते हैं, बिना ये परवाह किये कि 'उसका जूठा है!'_यह बे-तकल्लुफी ही इस बात का प्रमाण होती है कि ये जिगरी दोस्त हैं। भोलेनाथ शिवशंकर भगवान् की श्रीविष्णु भगवान् से मित्रता। भोलेनाथ शिवशंकर भगवान् की श्रीरामजी के साथ अनुराग! सुग्रीव जी के साथ श्रीरामजी की मित्रता! विभीषण के साथ श्रीरामजी की मित्रता। अर्जुन के साथ श्रीकृष्णजी की मित्रता। सुदामा जी के साथ श्रीकृष्णजी की मित्रता। उद्धव जी के साथ श्रीकृष्णजी की मित्रता। दुर्योधन के साथ कर्ण की मित्रता। मिसालें गिनने बैठोगे तो गिनती भूल जाओगे। दोस्ती किसी भी आदम जात की किसी भी दुसरे आदम जात से हो सकती है, हो जाती है, होती है, होती रही है और होती रहेगी। इसमें लिंग-भेद, जाति और उम्र के लिए भी कोई जगह नहीं। 75 वर्षीय वृद्ध भी एक 21 वर्षीय नौजवान के दोस्त होते हैं।

"अरे जा ना तू निश्चिन्त रह, हम(मैं) सब देख लेंगे(लूँगा)।" क्या ऐसा बोलने वाला आपने देखा है ?  >> "हाँ ! कितने देखे! सिरिफ बोलते हैं। डाइलोग मारते हैं। ज़रुरत के वखत मोबाइल पर '_घर से_' बोलते हैं- "हाँ! हाँ! ..अरे .. बड़ी दुःख होलउ इयार सुनके। अईसन कर ना, हम तोरा बाद में फोन करइत हियऊ, .. न!, ... उ .. हाँ रांची आइलीयाई हे, ..अच्छा औवा हियई त बतियावल जाइतै।"    

 ये जूठे अभी ही त्याज्य हैं। और अपनी पहचान के "दायरे" को बढ़ाइए।

एक बहुत ही प्यारा नारा है। जिसे दोस्ती के ज़ज्बे को नयी ऊंचाई देने वाले मेरे प्रिय लेखक सुरेन्द्रमोहन पाठक साहब ने बुलंदी पर पहुंचाया है -"यारां नाल बहारां, मेले मित्रां दे।"
(निवेदन : ये मेरे अपने विचारहैं। खुद को तसल्ली देने के लिए। पर मैं इसे निश्छल मित्रता और दोस्ती को समर्पित करता हूँ।)
 तो क्या ख्याल है? दोस्ती करोगे मुझसे?
_श्री .