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Sunday, February 24, 2013

हिंसा का उत्सव (शशि शेखर)

निम्नलिखित प्रत्येक अक्षर मैंने यहाँ खुद टाइप किया - क्यों? इसलिए की विचार मिलते हैं, जिसे निम्नलिखित के रूप में आज शब्द मिले :------>  एक बार अवश्य पढ़िए (MUST READ ONCE)>>

"आज़ाद भारत के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा था, जब राष्ट्रपति संसद में अपना अभिभाषण पढ़ रहे थे और देश महा-हड़ताल के दौर से गुजर रहा था। सिर्फ एक दिन पहले हमने टेलिविज़न पर नोयडा में हुई हिंसा के दृश्य देखर थे। अगली सुबह अखबार जब चाय की चुस्कियों के साथ इन घटनाओं से लोगों को रूबरू करा रहे थे, तब लोगों के अलसाए दिमाग में सवाल थे - क्या नई दिल्ली और देश के बीच वाकई कोई द्वैत पसर गया है? क्या हम भारत और इंडिया के बीच का विरोधाभास जी रहे हैं!!??

पहले नोयडा की बात। [लेखक '-शशि शेखर-' पेशे से खबरनवीस हैं।] टीवी  देखना और देखते रहना मेरी दिनचर्या में शुमार है। न्यूज़ एजेंसियों के 'टेक', 'फ़्लैश, और टीवी पर लगातार दोहराय जाने वाले 'विजुअल' मुझे नए विचार दे जाते हैं। पिछले बुधवार को जब नोयडा के एक ही विजुअल को बार-बार दोहराया जा रहा था, तब प्याज के छिलकों की तरह कई सत्य और तथ्य परत-दर-परत मन की सतह पर उभरते गए। पता नहीं आपने गौर किया या नहीं, जो लोग फैक्ट्रियों में तोड़-फोड़ कर रहे थे, उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं था। वे हंस रहे थे। गाड़ियों के शीशे तोड़ने वाले नौजवान 'एंग्री-यंगमैन' से ज्यादा - 'आवेश और आनद' - के तलबगार लग रहे थे। आदतन हादसा गुजर जाने के बाद सक्रीय होने वाली पुलिस ने बाद में जिन सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया, उनमे से तमाम १२-१५ बरस के किशोर थे। शोषक और शोषित की इस कथित लड़ाई में 'मज़ा!'...??

लेखक के पुत्र के मित्र की एक छोटी-सी फैक्टरी भी नोयडा के उसी सेक्टर में है। उन्होंने जो बताया, वह चौंकाने वाला है। वह नौजवान व्यवसाई अपने  दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। अचानक कुछ हुडदंगी घुस आए! उन्होंने गालिया देते हुए तोड़-फोड़ शुरी कर दी! इन उत्पातियों को एहसास नहीं था कि वह पूरा परिसर विडियो कैमरों की निगरानी में है। हादसा गुजर जाने के बाद उसने अपने कैमरों को 'फुटेज' देखि। वह देखता है - एक अधेड़-सा व्यक्ति निहायत मजाकिया अंदाज़ में कम्प्यूटर का सीपीयू उठाकर शीशे पर मार रहा है! एक नौजवान अपने डंडे को खाली कुर्सियों पर ऐसे बजा रहा है, जैसे बैंड मास्टर बजाते हैं! रिकार्डेड फुर्ज़ में अट्टहास के स्वर हैं और गालियों की ताल भी! ऐसा लगता है, जैसे किसी पुराने कसबे में होली के हुरियारे घुस आय हैं! क्या ये वाकई हडताली हैं? क्या शोषण की वजह से इनके अन्दर कोई गुस्सा है? ऐसा करते समय वे भूल गए हैं कि उन्हीं के भाई-बंधू इस तरह की फैक्टरियों और दफ्तरों में काम करते हैं। फिर जिन लोगों की गाड़ियाँ तोड़ी गईं, जो पिटे और जीके वाहनों में आग लगा दी गई उनका क्या कसूर था?

पिछले साल गुडगाँव में जब मारुति की फैक्टरी में हंगामा हुआ था, तब भी चिंता की आवाजें उठी थीं। नोयडा में जो लीग लुटे-पिटे, वे भारतीय हैं, पर मारुति में जापान की भी हिस्सेदारी है। जब यहाँ तोड़फोड़, आगजनी और एक प्रबंधक की हत्या हुई, तो जाहिर है, समूची दुनिया के कॉर्पोरेट जगत में हलचल मच गई। उन्हें लगा कि भारत उनके लिए सुरक्षित मुकाम नहीं है। इससे पहले हौंडा की फैक्टरी में में ऐसा ही उधम हुआ था।तब भी चिंता उभरी थी कि जो गुडगाँव विदेशी पूँजी निवेश के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहा है, यदि वहाँ यही हाल रहा, तो कौन परदेसी वहां पैसे लगाएगा? नोयडा गुडगाँव से कहिन्गाया गुजरा है! अगर वहां इस तरह की अराजकता फैली, तो उत्तर प्रदेश की भूमि पर कोई कारोबारी निवेश करने की हिम्मत आखिर कैसे जुटाएगा?

एक और सवाल 'लेखक के' -(मेरे भी)- जेहन में उभरता है।: दिल्ली में 'दामिनी' के साथ जो कुछ हुआ, उसके बाद शांतिपूर्वक प्रतिरोध करने वाले लोग सडकों पर आ जुटे। वे शालीन, गंभीर और सरोकार संपन्न लोग थे। उन्हें हिंसा से परहेज था और इसीलिए वे वहां आ जमे थे। उनदिनों भी टेलिविज़न पर कुछ दृश्य दिखे। इंडिया गेट के पास कुछ लोग सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे! कोई रोड बैरियर खींचे लिए जा रहा था, तो किसी को गाड़ियाँ तोड़ने में आनंद मिल रहा था। उन लोगों के चेहरे पर भी नोयडा के हुड़दंगियों जैसे भाव थे। कहीं जाने-अनजाने हम उत्पात और हिंसा की चपेट में तो नहीं आ रहे? अगर ऐसा हो रहा है, तो इसे रोकना होगा, क्योंकि इससे सरकार, प्रशासन और आम आदमी का ध्यान मूल मुद्दों से भटक जाता है। देश के सामने कई गंभीर सवाल हैं, जिनसे जूझने की जिम्मेदारी केवल सरकार, किसी भी राजनीतिक दल या ख़ास की नहीं है। इस समय को जी रहे सभी लोग इस जंग में बराबर के साझीदार हैं।

मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मैं भी चाहता हूँ कि देश में खुशहाली आए। श्रमिकों को उनके श्रम की उचित कीमत मिले और उनके बच्चे आगे बढ़ सकें। ऐसा करने के लिए जरूरी है, सार्थक बहस और कम-से-कम कुछ मुद्दों पर आम सहमती। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता। संसद में लगे कैमरों को ध्यान में रखकर बोलते सांसदों पर गौर फरमाइए या फिर टेलिविज़न स्क्रीन पर चिल्लाते पार्टी प्रवक्ताओं की ओर ध्यान दीजिये। क्या आपको मुफलिसी से लड़ने का कोई ज़ज्बा कहीं दिखता है? यही वह सवाल है जो लेखक को -(मुझे भी)- चिंतित करता है।

लगभग दो साल पहले जापान में सुनामी और भूकंप आया था। फुकुशिया के परमाणु संयंत्र में पानी भर आया था। रेडिएशन के खतरे पैदा हो गए थे। कई शहरों में बिजली चली गई थी और यातायात थम गया था। खुद टोक्यो इसकी चपेट में आ गया था। जिन लोगों  इस जादुई शहर को देखा है, वे जानते हैं कि वहां लोगों को काम करने के लिए ७०-८० (सत्तर-अस्सी) मील दूर तक से आना होता है। इसके लिए उनके पास एक ही विकल्प है- ट्रेन। भूकंप के कारण ट्रेनें रोक दी गईं थीं। लिहाज़ा लोगों को रात खुले आसमान के नीचे गुजारनी पड़ीं या मीलों चल कर घर पहुंचना पड़ा, पर किसी ने बदइन्तजामी की शिकायत नहीं की। क्यों? लेखक ने यह सवाल वहां रह रही एक हिन्दुस्तानी महिला को फोन पर पूछा। उनका कहना था कि सरकार हमारी है। ऐसे में, अगर किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से बदइन्तजामी फैली है, तो उससे जूझने की जिम्मेदारी सभी की है। वहां के लोग सरकार को नहीं कोसते, बल्कि उसकी सहायता करते हैं, ताकि हालात जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकें। उन्होंने इसके साथ यह भी जोड़ा कि भारत में ठीक इसके उलटा होता है। वह सही थीं। नोयडा में जो लोग लाठी-डंडे लेकर हिंसा का उत्सव मना रहे थे, वे समस्या से जूझ नहीं रहे थे उसे बाधा रहे थे। जो लोग किसी निरीह पर हुए बालात्कार अथवा कुछ मुद्दों के आधार पर आयोजित की गई हड़ताल को आनंद का जरिया बनाते हैं, आप उन्हें क्या कहेंगे? उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है?

इसीलिए राष्ट्रपति का अभिभाषण सुनते समय लेखक के -(मेरे मन में भी)- सवाल उठ रहा था कि मूल समस्या मंदी और बेरोजगारी नहीं, बल्कि तेजी से रसातल में जा रहे हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य हैं। इस क्षरण को रोकना होगा। बाकी बुराइयां खुद-ब-खुद काबु में आ जायेंगी।"

_श्रीकांत तिवारी .
(मूल लेखक श्री शशि शेखर)
साभार: दैनिक हिन्दुस्तान २४-फ़रवरी-२०१३
shashi.shekhar@livehindustaan.com
Twitter - Shashi Shekhar@shashis22019017

Saturday, February 23, 2013

वेद प्रकाश शर्मा!

वेद प्रकाश शर्मा!
http://www.facebook.com/groups/150125048478208/
हिंदी क्राइम फिक्शन की दुनिया से मेरा पहला प्यार इन्हीं की उपन्यासों से हुआ था। इनके लिखे अनेक विविध उपन्यासों में से सबसे ज्यादा मैं 'विजय-विकास' सिरीज़ के उपन्यासों को ही पसंद करता हूँ। हाई स्कूल से कॉलेज के 'मोड़' पर मेरी शर्मा जी के उपन्यासों से मुलाक़ात, जान-पहचान हुई थी। इनके पसंदीदा उपन्यासों की कभी मेरे पास वृहद् संग्रह हुआ करती थी। आज कुछ ही शेष हैं। शर्मा जी ने आजकल 'विजय-विकास' सिरीज़ को लिखना/रचना छोड़ नहीं दिया तो बहुत ही कम अवश्य कर दिया है। जिसके कारण इनके विविध रचनाओं की तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता। फिर भी, पहला प्यार कोई नहीं भूलता। हिंदी जासूसी उपन्यास को निरंतर पढने की पहली प्रेरणा मुझे शर्मा जी की किताबों से ही मिली थी। मैं किसी भी उपन्यास की समीक्षा नहीं करता न ही कभी उनपर कोई लेख लिखता हूँ। मेरी पसंद-नापसंद की अपनी विचारधारा है। मैंने फील किया है की प्रशंशा की जगह आलोचना बड़ी कष्टकारक होती है। आलोचना को कोई भी रचनाकार भूल सुधार की जगह अपनी नाकद्रि समझ कर उदास या फिर नाराज़ हो जाते हैं। जबकि इन्हीं रचनाकारों की अनेक-अनेक बहुसंख्य रचनाओं को जबरदस्त तारीफ़ मिलती है, तो वे फूले नहीं समाते। किसी उपन्यास का कथानक किसी वजह से आलोचना का भाग बन जाता है तो इसका मतलब ये नहीं कि लेखक ने इस बार मेहनत कम करी थी। पूरी लगन नहीं लगाईं थी। उनकी मेहनत और लगन पर कभी भी किसी भी प्रकार की शंका न कभी थी न होगी। शर्मा जी लेखक हैं, अभी भी लेखन में सक्रीय हैं। इनका भी एक विशाल पाठक-वर्ग अवश्य है तभी तो ये फोरम वजूद में आया है! मुझे दीपांशु जी ने इस ग्रुप में शामिल कर मुझे जो मान दिया है इसके लिए मैं तहे दिल से इनके प्रति आभारी हूँ। कभी संयोग वश शर्मा जी के किसी उपन्यास पर कोई बात कहनी होगी तो मैं उसे इफ मंच पर अवश्य ही मित्रों के साथ शेयर करूँगा। लेकिन खेद है कि काफी वर्ष बीत चुके हैं, मैंने शर्मा जी की कोई रचना, कोई भी नई रचना नहीं पढ़ी है। शर्मा जी के 'विजय-विकास' सिरीज़ में एक बात जो मैंने कॉलेज के दिनों में ही नोट की थी, वो ये की जितने भी जासूसों की जामात है, उनमे अधिकाँश भारतीय जासूस आपस में रिश्तेदार हैं, विदेशी हैं तो मित्र हैं! फिर भी वैचारिक और सक्रीय रूप से एक दुसरे के खिलाफ हैं! किसी भी केस का मामला हो अपने अलग-अलग सोच के वश ये आपस में ही भीड़ जाते हैं! कोई किसी के काबू में नहीं आता! सभी एक-से-बढ़कर-एक "धुरंधर" हैं! कोई किसी से "शिकस्त" नहीं खाता फिर भी सभी एक दुसरे को "शिकस्त" देने में ही लगे रहते हैं! कोई किसी से मात नहीं खाता फिर-भी खाता है तो एक एहसान की तरह! कोई भी केस हो मामला राष्ट्रीय-हित की सुरक्षा का ही होता है क्योंकि इसके बिना भारतीय 'सीक्रेट सर्विस' की भूमिका बनती ही नहीं! लेकिन राष्ट्रीय-हित से परे अपने-अपने हुनर के प्रदर्शन में ज्यादा इन्वोल्व रहते हैं! सभी इस केस को अपने ढंग से ही सुलझाने की जिद्द में आपस में ही लड़कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं! जैसी तकनीकों का सहारा लेकर शर्मा जी अपने जासूसों को 'सुपर पावर्स' प्रदान करते थे या हैं, वह सभी तकनीक आज बाज़ार में सभी नागरिकों को हासिल है। फिर भी ऐसी कई वैज्ञानिक तकनीक हैं जिन्हें हमारी जानकारी से परे रखा गया है, जिसके बारे में यदा-कदा चर्चा होने पर हम हैरत में पड़ जाते हैं! शुरू-शुरू में शर्मा जी के जासूसों के करतब हमें ऐसे ही हैरान कर मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे! शर्मा जी ने कभी खुद निवेदन नहीं किया लेकिन इनके उपन्यासों को पढने के लिए बहुत सी बातों से समझौता किये बिना गुजारा नहीं! सामाजिक विषयों में भी इसी तरह की जिद्द का समावेश मिलता है!

इस मंच से अगर शर्मा जी के किसी ख़ास नोवेल, जो मैंने नहीं पढ़ी है, उसे पढने की प्रेरणा मिली तो जरूर पडूंगा और इस मंच के प्रति सदा आभारी रहूँगा।

संलग्न फोटो मेरे पास शर्मा जी मौजूद उपन्यासों का कैमरा शॉट है ...
 
१.अल्फंसे की शादी <<<(शर्मा जी की रचना) मेरा सबसे चहेता उपन्यास
२.कफ़न तेरे बेटे का
३.विजय और केशव पंडित <<<वाह!
४.कोख का मोती
५.दूध ना बख्शुंगी <<<हिट!
६.दहेज़ में रिवाल्वर
७.दुल्हन मांगे दहेज़ <<< एक विलक्षण रहस्य कथा! कडवा सच!!
८.इन्साफ का सूरज <<<सुप्प्प्पर हिट!
९.बहु मांगे इन्साफ <<<लाजवाब!
१०.साढ़े तीन घंटे <<<गज़ब!
११.कातिल हो तो ऐसा
१२.शाकाहारी खंज़र
१३.मदारी
१४.Mr.चैलेन्ज
१५.लल्लु
१६.ट्रिक
१७.हत्यारा कौन
१८.वो साला खद्दरवाला (यहाँ 'साला' शब्द को क्रॉस करने की कोई विधि मेरे पास नहीं; कृपया क्षमा करेंगे)

मुझे मेरे बचपन के अभिन्न मित्र की तरह जब कोई याद आता है और मैं जिसे सबसे ज्यादा 'मिस' करता हूँ तो है -वेद प्रकाश शर्मा जी के उपन्यासों का अमर पात्र- '_विजय_!' कुछ ही दिन पहले 'बोकारो स्टील सिटी' रेलवे प्लेटफॉर्म पर की पुस्तक दूकान से मैंने पहले की पढ़ी किताब 'साढ़े तीन घंटे' खरीदी। शर्मा जी के अन्य रि-प्रिंट्स में से एक और पुरानी यादगार दिखी -'सारे जहां से ऊंचा' लेकिन चूँकि ये 'एक और अभिमन्यु' का दूसरा भाग है, और पहला -एक और अभिमन्यु-, दूकान पर उपलब्ध नहीं था मैंने, अफ़सोस के साथ, छोड़ दिया। यदि हाल में शर्मा जी ने कोई 'विजय-विकास' सीरिज़ की रचना/कथा/उपन्यास लिखा हो तो मेरा आग्रह है कि सूचित करने की कृपा करें।

सदर नमस्कार।
_श्री .

Friday, February 22, 2013

डांट-फटकार की शेयर-बाजारी !!

डॉक्टर साहब के दुखद निधन के बाद सभी मजदूरों ने खुद को यतीम समझा तो गलत नहीं समझा।

मजदूरों की भाषा में "युगों पुरानी रवायत" का अंत हो गया। मजदूरों की शंका सच सिद्ध हुई। पहले वाली बात अब नहीं रही। पहले वाली बात... ... ...

जब भी कोई मजदूर या उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ता, उसके निदान के लिए डॉक्टर साहब की उपस्थिति 'सबसे बड़ी दवा से भी बड़ी' राहत थी। संसार से भी बड़ी बीमारों की फौज में वे हरेक मरीज़ को उसके नाम, चेहरे सहित उसके पूरे परिवार को पहचानते थे। इन्होने (इन मरीज़ मजदूरों ने) भी यह बात अपने बाप-दादा और नाना से सुनी थी। जिसके वे प्रत्यक्ष गवाह बने। डॉक्टर साहब के स्नेहिल हाथ की थपथपाहट, उनके स्पर्श करने और मरीज़ के मुवयाने करने का अंदाज़, उनके पूछताछ का हंसोड़ ढंग, उनकी मुस्कान, सभी के सुख-दुःख में उनकी गरिमामय उपस्थिति को याद कर आज हर मरीज़ की आँखों में लाचारी और बेबसी के आंसू हैं। कंपनी के मजदूरों को डॉक्टर साहब की फीस अपनी जेब से नहीं चुकानी पड़ती थी। डॉक्टर साहब के लिखे पर्ची के मुताबिक दवा-दुकान से दवाइयाँ अपनी जेब से बिना कोई भुगतान दिए मिला करतीं थीं। हर छोटे मजदूर को और कंपनी के 'हर-एक-बड़े' स्टाफ को 'मेडिकल-फ्री' थी। यदि दुर्भाग्यवश बीमारी अगर रेफर केस बन जाती तो बड़े शहर में बड़े डॉक्टर्स के इलाज़ की फीस और सभी दवाइयों की कीमत -फिर भी- कंपनी ही अदा करती थी। कभी कोई अपवाद हो ही जाता था अन्यथा, प्रायः इसके लिए कभी भी किसी भी मजदूर या स्टाफ को सीधे कंपनी के मालिकान के पास कोई अलग से फरियाद की दरख्वाश दाखिल करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इसके लिए डॉक्टर साहब से पुनः सम्पर्क ही काफी होता था। इससे आराम, राहत और फायदा ये होता था कि न मरीज़ को सीधे मालिकान से सामना होता था न मालिकान एक-एक मजदूर के अलग-अलग मेडिकल खर्चे की झिक-झिक में पड़ते थे। सबकुछ एक स्वचलित प्रणाली की तरह सुचारू रूप से चलता था। मालिकन खुश कि उसने वादा निभाया और सद्कार्य किया, पुन्य कमाया और स्टाफ को उत्तम स्वास्थ्य देकर कामकाज निर्बाध जारी रखा। स्टाफ और मजदूर खुश कि मालिकान ने उस पर, उसके पूरे परवार पर दया की, उन्हें स्वस्थ किया और जीवन के नाना प्रकार के जंजालों में से एक सबसे बड़े ज़हमत से उसे निजात दिलाई! वह उपकृत होकर दो-गुने जोश से कंपनी के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभाने में जुट जाता। डॉक्टर साहब भी खुश कि 'इतने' गरीबों की दुआएं उन्हें मिलीं, और एक धनाढ्य कंपनी को अपना क्लायंट और पारिवारिक मित्र बनाया, साथ-ही-साथ गरीब-से-गरीबतर भी उनके प्रिय मित्र, शुभचिंतक और आजीवन मुरीद बन गए। दवा-दुकानदार खुश कि उसे इतनी बड़ी ग्राहक-ग्रुप मिली। मतलब सभी खुश। ...बिमारी न हुआ त्यौहार हो गया!

इस ख़ुशी को ग्रहण तब लगा जब स्वार्थी और गन्दी इंसानी फितरत ने इस जामात को छू लिया। इसके बाद इस परिवार में पवित्र प्रेम का निरंतर ह्रास होना, उसका क्षय होना शुरू हो गया। किसकी (किस ख़ास की) बुरी नज़र लगी ये न सोचा जा सकता है न अनुमान लगाया जा सकता है। एकबार भ्रमित होने के बाद अचानक सभी को 'सभी' बुरे लगने लगे। धीरे-धीरे जिसकी बारी आई वे पुराने और शुभचिंतक और पथप्रदर्शक गुरु, स्वामी, पति, पिता और पुत्रों की म्रत्यु से यह परिवार खाली होने लगा और उनकी जगह आये नए लालची और स्वार्थी तत्वों की भरमार हो गई। मजदूरों की पहचान _उनका बेशकीमती योगदान, उनकी अटूट मेहनत_ चापलूसी की भेंट होने लगे। जिन मालिकान को 'गरीब नीयरे और मजदूर प्यारे' थे, उनके नजदीक अब उनके नए चापलूसों की फौज ने अपने घेरे में ले लिया। मालिकान को भी 'वक़्त' बदलता दिखा उन्होंने चापलूसों की सेना के आगे निःस्वार्थ मजदूरों को खो दिया और स्वार्थी और कुटिल लोगों को अपना हितु बना लिया और होने वाले हर नुकसान का ठीकरा बेक़सूर मजदूरों के सिर फूटने लगा। चापलूसों ने डॉक्टर साहब की निश्छल, निःस्वार्थ सेवा को भी सवालों के घेरे में डालकर मालिकान को दिग्भ्रमित कर दिया जिससे आपसी-प्रेम को सबसे बड़ा झटका लगा, दरारें पड़ गईं! मजदूरों की बिमारी अब 'उनके'{मालिकान-के}रहम की मोहताज होने लगीं! सभी की बिमारी उन्हें {मालिकान-को}झूठी लगने लगीं। सभी की मासूम बातों में अब कंपनी को झूठ-फरेब और बिमारी का बहाना बनाकर 'गंदे पैसे' कमाने की चाल, सिर्फ चाल ही दिखने लगीं। इनकी नज़रों में डॉक्टर साहब अब 'जरूरत से ज्यादा' दवा लिखने वाले बन गये। दवा-दुकानदार इन्हें कुटिल व्यापारी कमीशन और दलाली-खोर दिखने लगा। मजदूर और सभी स्टाफ की नैतिकता हमेशा के लिए बदनाम हो गई। यूँ चापलूसों की सेना ने 'प्रेम और विशवास की हत्या' की और मालिकान के हमप्याला-हमनिवाला बनकर सत्ता और धन के सान्निध्य का हक़दार बनकर दिखाया। फिर मजदूरों पर भी हुकूमत करने की उनकी असफल कोशिश ने उन्हें आइना दिखाया तो उनकी भयानक मंशा की गति सिर्फ थोड़ी मद्धम ही हुई, _लेकिन उनकी मजदूरों और स्टाफ पर भी हुकूमत करने की चाल नाकामयाब रही। इससे बौखलाकर उन्होंने धनवानों की इस फितरत पर हमला किया कि 'हर दरबार की शोभा विदूषक से ही शोभायमान होती है'। उन्होंने अपनी छवि चाटुकार और विदूषक की बना ली जो हर सुबह राजा की आँखें खुलते ही उसके सामने अपना हंसमुख मुँह पेश करना, दिन भर उन्हें अपने निर्देशानुसार आखेट पर ले जाना, अपनी पसंद के जानवर को राजा का निशाना बनाना, शिकार के गोश्त के बंटवारे में अपनी बेशकीमती राय की महत्ता स्थापित करना, राजा के भोजन-शयन और आराम के साथ-साथ उनके लिए मनोरंजन के सम्पूर्ण साधनों की वव्यवस्था करना, कारोबार में अपना छोटा मुंह बड़ी बात की संज्ञा से विभूषित राय देकर राजा को आज्ञा देने के लिए अपने विशेष-इशारे की प्रतीक्षा के लिए रोके रखना, फिर और राजा की ओर से राजाज्ञा की घोषणा करना, इसतरह हर मजदूर, हर नागरिक को 'अपनी' चापलूसी में लगाना इन शत्रुओं का फैशन बन गया। जिसके थपेड़े जब डॉक्टर साहब, दवा-दुकानदार और दरबार की जनता पर पड़े तो उसकी जलन किसी भी घातक तेज़ाब की जलन से कहीं ज्यादा थी। पौराणिक खानदानी रीत अब राजा और राज-परिवार को खलने लगी। उन्हें उनके विदूषक चाटुकारों ने समझाया और कुछ स्वार्थी और दुष्ट नागरिकों की पोल खोलकर 'बड़ा-खुलासा' का सेहरा अपने सर पहना। एक उदाहरण ने सौ परिवारों की बलि ले ली। नीरीह, निर्दोष, सहमी हुई मासूम जनता पिस गई। लेकिन यहाँ कोई यूनियन नहीं, और न ही इसकी कोई गुंजाइश छोड़ी गई थी। कारोबार और नौकरी जारी रही लेकिन डॉक्टर साहब के घर जाने की नौबत आने पार मामूली फुंसी भी अब गहरे नासूर की तरह तकलीफदेह हो गई थी। आये दिन मालिकान, मजदूरों और स्टाफ पर खुलेआम बिगड़ने लगे। डांट-फटकार अब हर स्टाफ और मजदूरों की दिनचर्या में शुमार हो गई थी। इसी नफरत के बीच एक दिन वयोवृद्ध डॉक्टर साहब का निधन हो गया। समूची जनता को "लकवा-सा" मार गया ...

अब क्या होगा?

हर कोई इसे आपस में अपने-आपसे, एक दूसरे से पूछता फिर रहा है। कोई जबाब नहीं! __यह यक्ष प्रश्न अभी भी जस-का-तस खड़ा है...

डॉक्टर साहब के निधन के बाद चूंकि समूची मेडिकल व्यवस्था टूट गई थी, अब एक-एक टिकिया की कीमत के लिए मजदूरों और समूचे स्टाफ को मालिकान का ही आसरा था। जब ऐसा पहली बार हुआ तो बड़े मालिकान हकबकाय, झुंझलाय, कसमसाय, कुलबुलाय, तिलमिलाए, बिलबिलाय। जिस बीमार भीड़ की मेडिकल बिल्स का उन्होंने अनेक वर्षों से लगातार निर्विरोध, निर्विवाद रूप से भुगतान किया उन्हें इस लम्बी लाइन में कुछ ही चेहरे जाने-पहचाने बाकी सभी अजनबी लगे! ...फिर इस लम्बी लाइन का कोई अंत नहीं! ...फिर, हर के हाथ में दो-दो, चार-चार कागज़ के पुर्जे दिखे! मतलब एक बैठकी में यदि 25-व्यक्तियों की लाइन हैं तो तक़रीबन 100-पुर्जे देखना! उन्हें पढ़ना, समझना, सवाल-जबाब करना, फैसला लेना, और सब पर कलम चलाना भारी काम लगा। अब इसे कोई दूसरा तो नहीं करेगा, करना तो इन्होने स्वयं था!...किया। पर सख्त हिदायत जारी हुई कि आइंदे हर कोई माह में सिर्फ एक ही बार आवे। सबके हाथ में एक से ज्यादा पुर्जा न हो। सिर्फ 'अपनी' बिमारी की बात करे। पूरे परिवार का ठेका कंपनी ने नहीं लिया हुआ। और सबसे बड़ी हुक्म :'-जो जिस मालिक का नौकर है उसका फैसला उसका 'अपना मालिक' ही लेगा', सो! ...भागो सब यहाँ से...

जब जिस ख़ास मालिक का दरबार लगा तो उनके साथ उनके विदूषक और चाटुकार भी आसन पर विराजे। बीमार नौकर पेश हुआ तो चाटुकार या विदूषक ने ही सभी सभी तरह के जबाब-तलब किये, पुर्जे जांचे और मालिक को अपना विशेष-इशारा दिया। मालिक की घोषणा हुई कि 'तू चोर है, तू बेईमान है, तू झूठा है, तू मक्कार है..., तुझे हराम की खाने की लत पड़ गई है, तू दवा-दुकानदार से मिला हुआ है, उसके साथ मिलकर तूने झूठे कागज़ बनवाये हैं, तुझे कुछ नहीं मिलेगा...!'...भाक्क हिंयां से...

ऐसे दृश्य अब दरबार में आम दिखने लगे थे। डांट-फटकार, दुत्कार, धिक्कार, नफरत, हिकारत, गालियों और कोसनो से सुसज्जित नौकर खुद को धन्य-धन्य मान कर मालिक और विदूषक जी का उपकृत होकर निहाल होता _असल में अपना मुँह पिटवाकर_ जब अपने घर आया तो बीबी ने समझाया कि राजा की बात का बुरा नहीं माना जाता। दुधारू गाय की लताड़ भी अच्छी होती है, उसे भी उसी तरह स्वीकार करना चाहिए जैसे उसके हरेक आशीर्वाद को अब तक सिर-माथे लिया है। जब उसे पता चला कि उसके चार बच्चों को कुत्ते-बिल्ली के बच्चों से तुलना कर धिक्कारा गया है और एक छहमहीने-बच्चे की दवा का पुर्जा भी अस्वीकृत होकर फट चूका है तो वो भी संज्ञाशून्य-सी होकर अंतरिक्ष को सवालिया निगाहों से ताकती रह गई।

अब, दरबार में सबके मुख मलीन हैं। जो हर बिमारी को हंसी से त्यौहार की तरह हंस कर झेलते थे छोटी से छोटी बिमारी के नाम से भी कांपने लगे। सबको मनुष्य का शरीर है। कभी-न-कभी इस शरीर को किसी-न-किसी  इलाज़ की जरूरत पड़ेगी ही, भगवान् न करे, भगवान् न करे अब जो ऐसा वक़्त आ ही गया तो क्या होगा? कहीं बड़ी बिमारी से सामना हो गया तो क्या होगा? कहीं किसी प्रकार के ऑपरेशन का चक्कर पड़ गया तो क्या होगा? इस प्रकार के सवालों के अंत की कोई सीमा नहीं... पर इन लाचार और मजबूर मजदूरों को कौन-से जबाब से तसल्ली मिलेगी?? किसी के मुँह से अफ़सोस में डूबे स्वर से ये शब्द निकले :-'क्या मालिक की डांट-फटकार से डरकर बिमारी भाग जायेगी? क्या गरीब अब अमिर की डांट-फटकार के डर से अब बीमार ही नहीं पड़ेगा!?!?!?'

इस बात को एक विदूषक-जी ने सूना और खिलखिला कर हंसा:-'अब यही कामना करो! इसी तमन्ना मे अब तुमलोगों की गति है!' उसकी इस ताने भरी बात और निर्भीक भंगिमा से लगा जैसे वो ये भी जताना चाह रहा हो कि -'इससे हमही तुम्हें निजात दिला सकते हैं!' मुझे उसकी ये बात और उसकी हंसी बहुत बुरी और भयानक लगी। कोई फ़िल्मी हीरो होता तो युनियन बनाकर हड़ताल कर देता और एक्शनपैक्ड दृश्यों-की-सी सजा इन चाटुकारों को देता। लेकिन कठोर सच्चाई कहती है कि :-'ज़रा खुद को देखो, अपनी हालत को देखो! देखकर तुम्हें खुद ही पता लग जाएगा कि तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो?'

पर शायद अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं, और आयेंगे तो देख लेंगे! जैसे साक्षात् मौत को देख लिया वो इन तुच्छ लोगों की उलाहने और ललकार को भी देख लिया जाएगा। लेकिन इस जमूरे की बात का जबाब देना जरूरी था वरना इसने आज हमें ललकारा है, रोका न गया तो इसकी कुटिलता और निर्भीकता की वजह से हो सकता है किसी मजदूर भाई की दुःख के आंसू कभी नहीं सूखेंगे, किसी के भी रोके न रुकेंगे। मैंने उसे टोका :-'भाई साब! मेरी एक राय मानिए और अपने मालिक ही नहीं समूचे मालिकान सहित पूरी कंपनी को राय दीजिये कि वो आपको अपना एक और इकलौता भड़वा और दलाल घोषित करें। आप यहीं इसी ज़मीन पर, जिसकी धुल- माटी में हमने जनम लेकर अपना सर्वस्व, किसी ने स्वेच्छा से तो किसी ने मजबूरी से, इस कंपनी के मालिकान के हाथों में सौंप दिया है, आप अपनी दलाली और भड़वागिरी की दुकान लगावें। आपका तम्बू तानने में हम भी आपकी सहायता करेंगे। और उस पर बोर्ड टांगेंगे "डांट-फटकार की शेयर-बाजारी !! उर्फ़, भड़वागिरी की दुकान!" ...आप अपनी दलाली की दुकान में बकायदे हमसे फीस लेकर हमें अपनी निर्लज्ज सलाह दें कि हम अधिक-से-अधिक नाजायज़ पैसा कमाने के लिए कौन सी वाहियात बिमारी का ढोंग करें!? आप खुद चलकर दवा दुकानदार से मिलें, अपनी दलाली की कमीशन फिक्स करें! हमारे नाम का पुर्जा हासिल करें! फिर आप अपनी भड़वागिरी के देखरेख में स्वयं हमें मालिकान के आगे पेश करें और उन्हें सलाह दें कि आपकी पसंद की "निम्नलिखित गालियों की लिस्ट" में से 'फलाना गाली' से हमारी जूत-पुजार करें और जो कि फिर आपकी नयन-कटारी के ख़ास इशारे, भौंह-मटक्के के अर्थ को समझकर हमारी अर्जी पर दस्तखत कर देने की महान कृपा करेंगे! फिर जब वो पुर्जा नगदी निकासी में कामयाब हो जाय तो आप हमसे अपनी फीस और दुकानदार से अपनी दलाली वसूल लें! आप अपनी भड़वागिरी की दुकान में दलाली की और मशवरे की एक लिस्ट टांगें जो इस प्रकार होगा :
इन्वेस्ट करें और फजीहत के साथ घर बैठे उत्तम स्वास्थ्य और 'अनिश्चित' मुनाफा कमायें:
१. सिरदर्द होने पर > मामूली गाली! मुनाफा ५% 
२. जुकाम होने पर > थोड़ी ज्यादा मामूली गाली! मुनाफा १०%
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.etc etc ...
किसी भी वाद-विवाद का न्याय-छेत्र भड़वे दलाल जी के बापों का मोहल्ला होगा।'
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'अब से इसी बात पर डिस्कशन होगा कि किसे कौन से नंबर की डांट खिलाई जाए, किस लेवल की गाली दिलवाई जाय ताकि उसकी बिमारी दूर जाय।​ भड़वे जी की चम्पी करेंगे और घिघियाएंगे कि बॉस डांट सुनवा दो ना! माँ बीमार है! भड़वे जी का दरबार लगेगा और दूर-दराज के गावों-देहात से लोग 'डांट-फटकार में इन्वेस्ट करने' आने शुरू करेंगे।  शेयर के भाव इसी तरह ऊपर नीचे होते पाये जायेंगे! सेंसेक्स की चर्चा होगी! हो सकता है कोई ऐसी गाली डेवेलप हो जाय जिससे मौत को भी टाला जा सके! जिसके शेयर विदेशों तक में बेचे जा सकेंगे! अर्थव्यवस्था को गालियों का सहारा मिलेगा, मरीजों को स्वास्थ्य के साथ मुनाफे में भी इजाफा होगा! भड़वे जी की लम्बी उम्र की दुवाएं मांगी जायेंगी लेकिन ऐसी किसी भी गाली का लाभ न होगा, क्योंकि भड़वागिरी एक लाइलाज बिमारी है, देश-विदेशों में शोध हो रहे हैं, लेकिन कोई भी सटीक गाली अब तक नहीं पाई जा सकी है जो इस भड़वे को फिर से स्वस्थ कर सके! अंततः मरेगा। फिर उसकी कब्र या समाधि पर स्मारक बनवाया जाएगा! चंदे में सबसे बड़ी राशि मालिकान ही देंगे ताकि शेष भड़वों को प्रोत्साहन मिले! समरक पर हर वर्ष पुण्य तिथि का त्यौहार या उर्स मनाया जाएगा! मालिकान और मजदूरों और स्वर्गीय डॉक्टर साहब के परिवार की तरफ से चादरें चढ़ाई जायेंगी! कीर्तन होंगे! जयजयकार होगा! प्रसाद और चढ़ावे चढ़ेंगे! भड़वे जी की याद में कवि-सम्मलेन और मुशायारें होंगे जिसमे भड़वे जी की शान में गीत-संगीत, दोहे और छंद पढ़े जायेंगे! गालियों की शेयर दुकान की लोप्रियता से प्रेरित होकर दवा निर्माता गालियों पर शोध को फाइनांस करेंगे! कोई नयी इजाद होगी तो उसे हर तरह के इनाम-इकराम से नवाज़ा जायेगा! लगे रहिये! नयी इजाद के बाद गालियों की पुडिया सस्ते दर पर बाज़ार में आ जायेंगी! और कृतज्ञ मजदूर नारा लगायेंगे :-'जब तक सूरज-चाँद रहेगा भड़वे जी में प्राण रहेगा! भड़वे भाई अमर रहें! --अमर रहें! अमर रहें!!'

नमस्ते।
_श्री .
 

Thursday, February 21, 2013

बचपन के कॉमिक्स मित्र और हीरो

जरा याद करके देखता हूँ कि मुझे मेरे बचपन के कितने (कॉमिक्स) मित्र और हीरो याद हैं : मेरे दोस्त ज़रा मदद करना कि सभी याद या जाएँ __ वो क्या है कि आज १९७१-से-१९८० के दौर की बात है, और निम्नलिखित में से आज एक भी, कोई भी मेरे साथ नहीं, मेरे पास नहीं... कभी था तो (...वो किस्सा फिर कभी)
"लोटपोट" के माध्यम से >>


 १.चाचा चौधरी   <<<कॉमिक्स से सबसे पहला प्रेम +चाची+दीपू; और बाद में हमसे आन मिले अभिन्न दोस्त, दूसरे ग्रह के वासी, महाबली अतिविशाल 'साबु"!<<(कार्टूनिस्ट प्राण)

२. (i )मोटू-पतलू! <<<ये मेरे सबसे पहले साथी थे;  

    (ii )मास्टर घसीटाराम
    (iii)चेलाराम

    (iv)डॉक्टर झटका!<<(इनके कार्टूनिस्ट ज्ञात नहीं).
"चंपक" के माध्यम से>>
३. चीकू (खरगोश)!<<(कार्टूनिस्ट प्राण)
"पराग" के माध्यम से>>(यहाँ यादास्त थोड़ी लडखडा रही है)
४. दीपू!<<(कार्टूनिस्ट प्राण)
"नंदन" के माध्यम से>>
५. मंगलू मदारी और बन्दर बिहारी!<<(कार्टूनिस्ट शोहाब) दो और हसोड़ बन्दे शोहाब द्वारा ही प्रस्तुत होते थे अभी याद नहीं आ रहे...कौन थे...
"धर्मयुग" पत्रिका के माध्यम से>>जिसके आखिर में ...कार्टून कोना!> ज्यादा-से-ज्यादा कार्टून की ३ या ४ स्लाइडें होती थी>>
६. ढब्बू जी!<<(कार्टूनिस्ट का नाम 'आबिद सुरती' था! ये नाम मुझे मेरे fb मित्र हरमिंदर छाबरा जी से पता चला।) आबिद सुरती का नाम याद दिलाने के लिए हरमिंदर छाबरा सर, आपका धन्यवाद! 'सिलबिल और पिलपिल' नाम से कोई घंटी जरूर बजी 'दीवाना' की भी टन-टन सुनाई दे रही है लेकिन कोई अक्स जेहन में नहीं उतर रहा। हाँ सर याद आ रहा है पर उनकी फोटो जेहन के कहीं अटक गई है, ऊपर जो भी लिखा है यादास्त से लिखा है, मेरे पास से ये खजाने कब के लुप्त हो चुके हैं, अब शायद इसमें ज़हीर भाई ही कुछ मदद करें ...
"मधु मुस्कान" के माध्यम से>>
७. (i)पोपट-चौपट!<<<कॉमिक्स की दुनिया के मेरे दुसरे नंबर के लेकिन सबसे प्यारे और सबसे लम्बे समय तक के प्यारे दोस्त।
    (ii) सुस्तराम-चुस्तराम!
    (iii) जासूस चक्रम और चिरकुट(डॉग)!

    (iv) भारत कुमार!<<(सुपर हीरो)
    (v) भूतनाथ और जादुई तूलिका!+मालिक साहब।<<(सभी के कार्टूनिस्ट जगदीश)
८. (vi) डाकू पानसिंह
    (vii) कलमदास।<<एक असली चरित्र का कार्टून वर्शन।<<(इनके कार्टूनिस्ट का  ज्ञात नहीं)
...और भी कई मित्र जरूर होंगे जो छूट रहें हैं ...




"इंद्रजाल" कॉमिक्स (वाह!वा!वाह!वा!) के माध्यम से>> 
९. (i) वेताल <<इसके ओरिजिनल कार्टूनिस्ट का नाम मुझे नहीं मालूम, वैसे भारत में इंद्रजाल कॉमिक्स वाले कभी-कभी भांजी मारते थे और लोकल आर्टिस्ट द्वारा निर्मित देसी कार्टून, देसी कहानी के साथ भी परोस देते थे जिसके साथ एक संगत के बाद दूसरी मिलन की इच्छा मर जाती थी। ओरिजिनल__जंगल में वेताल! फैटम!! चलता-फिरता प्रेत!!! शहर में ब्लू ओवर कोट घारी _मिस्टर (मिस्टीरियस) वॉकर !!! 
 जिसकी शायद २८वीं पीढ़ी का वंशज हमारा हीरो है, बहादुर, महाबली, महाज्ञानी, महान इंसान, महानायक, दोस्तों का दोस्त, दुश्मनों का दुश्मन! इतना ज्यादा! इतना कुछ कि अपने घर के लोगों से भी प्यारा! यार!! इतना प्यारा की इससे प्यारा और कोई न हुआ न होगा(...अब क्या होगा!)!!! इसके बारे में कोई भी व्याख्या छोटी होगी। ये एक अकेला हमारे साथ, हमारे पक्ष में, सदा-सर्वदा खडा, सब-पे भारी! सबसे बड़ा, सबसे पहला सुपर हीरो। फैंटम!! -हिंदी में वेताल के सफ़ेद घोड़े का नाम 'तूफ़ान' हुआ करता था, कुत्ते का नाम यद् नहीं ..., 
वेताल के दाहिने हाथ में खोपड़ी के निशान वाली अंगूठी से दुश्मन पूरी दुनिया में खौफ खाते हैं, जिसके चेहरे पर इस अंगूठी द्वारा, वेताल के घूंसे के मार्फ़त, इस खोपड़ी का निशान/छाप बन जाता है वो सारी दुनिया में हमेशा केलिए तस्दीकशुदा खलनायक और बुरे चरित्र वाला माना जाता है, जबकि बाएं हाथ की अंगूठी का निशान/छाप वेताल की अटूट मित्रता का सुबूत माना जाता है..., हॉलीवुड ने एक फैंटम मूवी बनाई है लेकिन उससे लगाव नहीं होता जितना की कॉमिक्स से है...वेताल का घर, उसका खोपड़ीनुमा दरवाजा, उसतक पहुँचने का रोमांचक रास्ता, वेताल के पुरखे के चेहरे वाली पहाड़ की चोटी, कला-वी का सुनहरा तट, पिरान्हा मछलियों से भरी नदी में वेताल की डोल्फिन दोस्त, और मंगेतर डायना ...इनकी याद से अभी रोमांच हो रहा है, लेकिन इनकी गैर-मौजूदगी से मन उदास है... 


(ii) मैन्ड्रेक<<जादूगर>>,  और इसका साथी (हमारा साथी)महाबली, सर्वशक्तिशाली "लोथार!"  मैन्ड्रेक! वेताल के बाद दूसरा प्यारा दोस्त, जो "जनाडू" नाम के अजीबोगरीब घर में रहता है! जो एक पहाड़ की छोटी पर स्थित है। जिसके रास्ते पहाड़ के चारों तरफ सांप की तरह लिपटे नीचे से ऊपर की ओर चले गए हैं। जिस रास्ते में पग-पग पर इलेक्ट्रानिकली कंट्रोल्ड गज़ब-गज़ब की बाधाएं हैं,  ...जिसमे अवांछित प्रवेश नामुमकिन है। ...फिर भी दुश्मन दुस्साहस कर बैठते हैं जिसे मैन्ड्रेक और लोथार की जोड़ी मजेदार जादू और ताक़त से मज़ा चखाते हैं..., हर बार रूह कंपा देनी वाली विलक्षण कहानी, हर बार नए-नए  विलक्षण विलैंस... 

(iii) गार्थ

(iv) फ़्लैश गोर्डन
और अदभुद मानसिक शक्तियों का स्वामी, -बालक "बिली!" अंतरिक्ष में "बाहरी दुश्मनों" से "बाहरी दोस्तों" से रोमांचक मुलाक़ात, रोमांचक कहानी, वो तकनीक जो "आज" हम यूज़ कर रहे हैं, १९७५ में ही कॉमिक्स में पढ़ चुके थे और सपनाते थे...
(v) बहादुर (भारतीय चरित्र) 'नागरिक सुरक्षा दल' (नासुद) का नायक -बहादुर!'
(vi)रिप किर्बी (जासूस) और इसका साथी डेसमंड (बटलर-/पीर,बावर्ची,भिश्ती,खर)
इनके बाद अमेरिकन सुपर हीरो "सुपर-मैन" को ही हम जानते थे, ...फिर मर्द बनते बच्चों के बीच टपके "बैटमैन", "स्पाइडर-मैन" वगैरह... टीवी पे देखा "ही-मैन" जिनकी कोई कॉमिक्स हमने नहीं पढ़ी। अब हॉलीवुड की किरपा से 'मैन-ही-मैन" हैं ... देखते जाइये लेकिन मैन्ड्रेक और वेताल से प्यारा मोटू-पतलू, और पोपट-चौपट सा दुलारा अब कोई क्या होगा!
 "अमर चित्र कथा के माध्यम से >>>
पूरी भारतीय संस्कृति एवं सभी देवी-देवताओं सहित समूचा राक्षस वर्ग! पौराणिक से लेकर इतिहास के साथ सम्पूर्ण ऐतहासिक पुरुषों की चित्र कथाएं, साथ में आधुनिक भारत के निर्माता भी! पहले हिंदी में, अब सिर्फ इंग्लिश में उपलब्ध! इसी के अन्य प्रकाशन में हमारे वक़्त टिंकल और सुपंदी के कारनामें आ गए थे। हिंदी 'अमर चित्र कथा' के सिर्फ ३० ही कॉमिक्स मेरे पास अभी हैं। ...कभी ऊपर से नीचे तक सभी थे ...और सारी क्रिकेट टीम थी ...मेरी लाइब्रेरी के हर वक़्त निःशुल्क सदस्य थे ...जो जिंदा हैं, उपलब्ध हैं पर बचपन की वह निश्छलता कहीं खो गई है, और नेतागिरी के इस दौर में उनकी यादास्त कहीं नेपथ्य में चली गई है ...जिन्हें अब कभी "वेताल" की याद नहीं आती ... 

और कुछ याद नहीं अभी, बाकी आप याद दिलाइये .........
_श्री .

जिम कॉर्बेट की किताब 'मेरा हिन्दुस्तान' से

'ज़िन्दगी में तदवीरें तो हम बहुत करते हैं लेकिन उनमें से कुछ अगर तकदीर के हाथों ख़त्म हो जातीं हैं तो मुझे पता नहीं कि इस बात से हमें दुखी होना चाहिए या नहीं।'

---जिम कॉर्बेट की किताब 'मेरा हिन्दुस्तान' (page 70) से...
_श्री .

Tuesday, February 19, 2013

पाठक सर का जन्म-दिवस

धत्त तेरे की!
19,फरवरी को हमारे प्रिय पाठक सर का जन्म-दिवस है। उनके सभी प्रशंशक, हीत-मित्र, परिवार और शुभचिंतक उन्हें स्वस्थ, प्रसन्न और लम्बी उम्र की शुभकामनाएं देने लगे हैं, तो मैं पीछे कैसे रह जाऊं?...मैं शहर के सबसे माने हुए ग्रीटिंग्स-कार्ड बिक्रेता, जिसके पास हर प्रकार, हर दाम के और हर शुभ-मौके के लिए कार्ड्स हमेशा उपलब्ध रहते हैं, गया और पाठक सर के लिए कोई धांसू कार्ड तलाश करने लगा, ...लेकिन कोई भी कार्ड पसंद नहीं आ रहा था, ...सब में जो शुभकामना सन्देश इंग्लिश या हिंदी में छपे हुए थे वो मुझे पाठक सर के खुद द्वारा ही रचे हुए लग रहे थे, ...क्योंकि इन पंक्तियों का रचयिता भी कोई पाठक सर सामान रचनाकार ही होगा, ...एक उम्दा और पसंदीदा रचनाकार को किसी और के द्वारा रचित रचना भेजना क्या उचित होगा ...!!??...मुझे काफी देर से असमंजस में देखते दुकानदार ने पूछा कि मैं क्या ढूढ़ रहा हूँ? ...मेरे बताने पर उसने कई और सारे कार्ड्स दिखलाए लेकिन कोई बात, कोई कार्ड मुझे अब-भी पसंद नहीं आ रहा था, ...फिर भी दुकानदार के इसरार पर मैंने एक कार्ड चुना जिसमे कई पन्ने थे, और सभी पन्नों में कोई नयी बात लिखकर उत्साहवर्धन, और शुभकामना सन्देश जगह-जगह छपे हुए थे, ...मैंने फिर सोचा कहीं कार्ड-निर्माता ने इन्हें पाठक सर से ही तो नहीं लिखवाया हुआ, ...पर मैंने उसे खरीद लिया। उसके साथ एक सादे कागज़ पे मेरे अपने प्रेम के कुछ शब्द और शुभकामनाएं लिंखीं, उसे कार्ड में मिलाकर कार्ड सहित उसके साथ मिले लिपाफ़े में डाला,...उसपर पाठक सर का पता लिखने ही वाला था कि मोबाइल पे काल आ गई, ...काफी देर तक बातों में उलझा मैं फिर से लिपाफे कार्ड और पत्र को उलटने-पलटने-रखने-निकलने-रखने-सजाने लगा। दुकानदार ने मुझे इस तरह देखा तो मुझे हेल्प करने की गरज से मेरे पास आया और मेरे हाथ ले लिपाफा सेकर उसे सलीके से बंद कर उसे सेलोटेप से चिपका दिया। बात ख़त्म हुई तो मैं दाम चुका कर दुकानदार का शुक्रिया कर ऑफिस आ गया और लिपाफे पर पाठक सर का पता लिख कर उसे ऑफिस के 'मामा' को दे दिया कि वो उसे जल्दी से पोस्ट कर दें। उन्होंने उसे मेरे निर्देशानुसार पोस्ट कर दिया। शाम को मेरे ऑफिस में फ़ोन आया। फोन कार्ड वाले दूकानदार का था जिसने बताया कि जो कार्ड मैंने इतनी शिद्दत से छांटा था वो उसके काउंटर पर ही रह गया था,...

लिपाफे में सिर्फ चिठी भर ही थी ...

Monday, February 18, 2013

हमारी मानसिकता ही खराब है....

हमारी मानसिकता ही खराब है या जानबूझकर इसे शनैः-शनैः खराब किया गया है?

आदमी विनाश और विध्वंश का तमाशा देखकर, पढ़कर कितना हर्षित होता है!! युद्ध, लड़ाई-झगडे, मार-पीट, कार-क्रैशेस, विस्फोट, धमाके, खून, क़त्लोगारत और औरताना जिस्म की भद्दी नुमाइश देखना और दिखाना, लिखना और पढना-पढ़ाना कितना भाता है!! फूहड़ता में संस्कृति ढूंढी जाती है। कॉमेडी जितनी फूहड़ होगी उतनी तालियाँ बजेंगी। इसे रचने वाले रचयिताओं की मानसिकता के बारे में कुछ कहना मुश्किल है पर उनकी रचनाओं में निहित ये 'नफरत के अंजाम' देख-पढ़कर खुश होने वाले, तालियाँ बजाने वाले 'हम' में से कितने लोगों ने असली ...एक मामूली सा देसी तमंचा भी साक्षात् देखा है? फिर ऐसे उन्मादों को झेल भी पायेंगे भला? युद्ध और क़त्लोंगारत की विभीषिकाओं को झेल भी पायेंगे भला? जंग के बाद के हालत से निपटने की कितनी ताकत है हममे, जो जंग के लिए तुरंत उद्धत हो उठते हैं? पर हम कायर और डरपोक भी नहीं__

"साथियों! दोस्तों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं! 
हमसे भी कृष्ण यही कहते हैं कि 
ज़िन्दगी सिर्फ अमल! सिर्फ अमल! सिर्फ अमल!
और ये बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है!
'अमन' की महँगी तस्वीर में है जितने रंग,
उन्हीं रंगों में छुपा खून का एक रंग भी है।
जंग रहमत है के लानत?_ये सवाल अब न उठा!
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी,
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का ज़लाल।
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का ज़लाल,...
>>इसी दोज़ख के किसी कोने में ज़न्नत होगी।<<
दोस्तों! साथियों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं!" __...यह एक अलग ज़ज्बे और विषय की बात है!

सामाजिक विषयों में भी बिना विष घोले उसकी सेल वैल्यू नहीं पाई जाती। क्या ऐसे विषय और इसके रचयिता साहित्यसृजन कर तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, चाणक्य, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह 'दिनकर', सुभद्रा कुमारी चौहान, विलियम शेक्सपियर और मुंशी प्रेमचंद के सदृश साहित्यकार कहलाने का हक रखते हैं? आप ऐसे रचनाओं पर छपी नग्न महिलाओं की छवि घर में खुलेआम दिखाकर देख-पढ़ पायेंगे, ऐसा सहजता से कर पाते हैं? क्या ऐसे 'लुगदी' रचनाओं को कीमती कागज़ पर छपवाने, बिकवाने से उसमे निहित अश्लीलता और नफरत की घिनौनी बू को आप अपनी संतान -पुत्र-पुत्री- को पढने के लिए रेकोमेंड कर उनसे शेयर करेंगे? अगाथा क्रिस्टी और सर आर्थर कानन डायल भी रहस्य कथा ही लिखकर अमरत्व सामान प्रसिद्धि के हक़दार बने। आंकड़े और लेख बताते हैं कि समूची दुनिया में बाइबल के बाद अगाथा क्रिस्टी के नोवेल्स बिके जो एक रिकार्ड है, लेकिन उन्होंने कभी स्वयं या अपने चमचों के मार्फ़त इस सवाल को हवा नहीं दी कि उन्हें साहित्यकार माना जाय या नहीं! जबकि हमारे स्कूलों की किताबों के पाठ्यक्रम में शर्लोक होम्स की कहानी को शामिल किया गया था! क्यों? वो इसलिए कि एक जासूस की सूझबूझ और अपराध के सटीक विश्लेषण की कहानी थी, जिसमे किसी भी प्रकार के नफरत, उन्माद और अश्लीलता की बात नहीं थी। ...आपने जो रचा उसकी स्वाभाविक और सामान्य से ज्यादा प्रशंशा, प्रसिद्धि और समृद्धि क्या आपको कम पड़ गई?...सो आप भी चाहते हैं की आपके पात्रों की कहानियाँ स्कूलों में पढ़ाई जाएँ?...आपको साहित्यकार मानकर आपकी जीवनी छापी जाय!...परीक्षाओं में आपसे सम्बंधित प्रश्न शामिल किये जाएँ!...इसी तरह शिक्षा की तरफ बच्चो का ज्यादा झुकाव होगा!...वे ज्यादा चपल और चतुर-चालाक नागरिक बनेंगे!...क्यों!!? इसी तरह सभी कॉमिक्स भी अब पाठ्यक्रम बन जाएँ तो पढना-लिखना और परीक्षा पास करना भी थ्रिल सस्पेंस सा मजेदार और चठ्कीला हो जाय। आपके कलम में और आपके ज़ेहन में साहित्यसृजन की कमाल की ताक़त है, जिसे कोई साहित्यिक दिशा दिए बगैर ये कोलाहल और सवाल आपकी स्वच्छ मंशा पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। जो आप स्वाभाविक तौर पे करते चले आ रहे हैं वो करते रहिये, साथ-ही-साथ कुछ ऐसा कीजिये जिसे हर स्तर पर हर मंच पर सम्मान मिले, जो स्वार्थ से परे कोमल मानवीय अनुभूतियों के साथ-साथ वीरोचित गायन को भी शब्द प्रदान करें तो कोई बात बने।

दूसरे का झगडा देखना और कोई झगडा खुद झेलना क्या एक-समान बात है? हम में से कितनों ने बन्दूक की गोली की आवाज़ भी नहीं सुनी। वही कोई गोली जब हमारे अगल-बगल से गुजरेगी तो उस दहशत से निपटने में हम स्वयं को सक्षम बना भी लें तो अपने परिवार और बच्चों को कैसे सक्षम बना पायेंगे? __क्या तालिबानी तालीम देकर? ...या सबको मिलिट्री में भारती करवा दें!? जंग के दृश्य टीवी, मूवी, और किताबों में देखना-पढना और झेलना क्या एक बात है? मनोरंजन के उद्देश्य से रचे गए ऐसे कथानक क्या बेवजह के उन्माद में सहायक नहीं? मनोरंजन क्या सेक्स के बगैर संभव नहीं? जोक्स भी तो मनोरंजन हैं। लेकिन जैसे जोक्स लिखकर लेखकों ने किताब की तरह छपवाकर सस्ती लोकप्रियता और पैसे कमाए वो क्या साहित्यकार कहलायेगा? क्या औरतों की फजीहत किये बिना जोक्स की रचना कर पाना असंभव था या है? सहज और निर्मल हास्य-व्यंग्य के कवि और साहित्यकार आज अपनी पहचान खोते अपने वजूद को ढूंढ रहे हैं, _इनके हास्य-रस के प्रेमी भटक कर कहीं और विलीन हो गए हैं। सर्कस भी तो मनोरंजन है, लेकिन सर्कस की महिला कालाबाज कलाकार भी जिस्म की नुमाइश किये बिना अपने रोमांचित करतब नहीं दिखाती, क्यों? जासूसी की कहानियाँ भी तो मनोरंजन के लिए ही हैं। एक्शन-पैक्ड सस्पेंस थ्रिलर फिल्म या उपन्यास भी तो मनोरंजन ही है। लेकिन उन्हें पेश करने का अंदाज़ क्या 'जन-जन में' लोकप्रिय है? जेम्स बांड के रचयिता इयान फ्लेमिंग के उपन्यास पर आधारित जेम्स बांड की पहली फिल्म 'Dr. NO' को शुरू में ये कह कर नकारा गया था कि फिल्म में सेक्स बहुत ही ज्यादा परोसा गया है। लेकिन जेम्स बांड आज एक मिथक और किवदंती बन गया है, जबकि अभी इयान फ्लेमिंग जीवित नहीं हैं, लेकिन उनके इस पात्र को सारे संसार में जो ख्याति मिली वो किसी भी -इसी विषय के- अन्य रचनाकारों के लिए इर्ष्या का द्योतक बन चूका है। इयान फ्लेमिंग के न रहने के बावजूद जेम्स बांड की फिल्मे बनाई और रिलीज़ की जा रही हैं, लेकिन इयान फ्लेमिंग को साहित्यकार नहीं मान लिया गया, और आजकल या पहले की किसी भी जेम्स बांड मूवी को हम अपने परिवार के साथ देख पाने का साहस खुद में नहीं जुटा पाते, क्यों? जन-जन में लोकप्रिय मानवीय मूल्यों की रचना से किसी को भाव-विह्वल और अभिभूत करना भी तो मनोरंजन है। puzzeled सस्पेंस की गुत्थी सुलझाने में या उलझन को सुलझाते देखने-पढने में जो आनंद और मजा है क्या वो सेक्स और हिंसा में है? 'हत्यारा कौन' जैसे टाइटल पर कितने ही रचनाओं को न जाने कितने ही रचनाकार नित्य-निरंतर रचते ही चले जा रहे हैं। लेकिन कितने ऐसे कथानक फ़िल्में या उपन्यास हमारे मन को प्रफुल्लित कर पाए और कितने ऐसे रचनाकार इसमें सफल हुये हैं? इसकी गिनती मामूली है। कोई अनगिनत नहीं, क्यों? प्यार-मोहब्बत-दोस्ती की कहानियां भी तो मनोरंजन हैं। ...ऐसे ही नार्मल ढंग से कोई रचनाकार क्यों अपनी धारा की दिशा और गति को बदल देता है? क्यों "भ्रमित करने वाले शीर्षक" से उन्हें पेश कर हमें छला जाता है? ...सब जानते-बूझते भी ऐसी ओछी बातों पर भी हम ताली पीटते जाएँ तो क्या ये एकनिष्ठ प्रेम और रचनाकार की लोकप्रियता की सही मिसाल कहलाएगी? जी नहीं। भ्रमित, झूठी, अंधी और अल्पायु लोकप्रियता ही कहलाएगी जिसे कोई बराबर शेयर करता नहीं रह पायेगा। प्रशंशनीय अमर रचना के लिए खुद-ब-खुद हमारे मुँह से 'वाह!' निकल जाती है। इसकी कई मिसालें हैं। पठनीय अवश्य पढ़ा जाएगा, देखेने योग्य को अवश्य देखा जाएगा और उसकी स्वाभाविक सराहना भी होगी ही। इसी प्रकार निदनीय की निंदा और आलोचना भी होगी ही। प्रशंशा जितनी मीठी और सुपाच्य होती है, उसी भावना से कोई रचनाकार आलोचना नहीं पचा पाकर भड़कता है तो क्या ये उसकी सही प्रतिक्रिया है?

ऐसे रचनाकारों की फैन-क्लब बनाना एक ख़ुशी और स्निग्ध स्नेहिल प्यार के लेन-देन के बदले, जानकारी और दिशा-ज्ञान के लेन-देन के बदले बेकार के बहस और झगडे का मंच बनते जा रहे हैं। बहस-मुबाहिसे, और झगडे को कंट्रोल कर पाना फैन-क्लब के प्रणेता के लिए कितना मुश्किल जॉब है, इसे विचार नहीं किया जाता। प्यार लो, प्यार दो के बदले प्यार का पोस्टमॉर्टेम शुरू हो जाता है। ऐसी हालत में मुख्य उद्देश्य गौण हो जाता है और ग्रुप की प्रतिष्ठा और आयु पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। फिर जब ग्रुप-निर्माता आपका हमख्याल हो, दूरस्थ ही सही मित्र हो तो बड़ी दुरूह परिस्थिति बन आती है। अपने बनाए घर को वो किसी भी हालत में किसी और की संपत्ति बनता क्यूँकर मंज़ूर करेगा? अपने घर के सदस्यों को जिन्हें उसने तिनका-तिनका बटोरकर प्रेम-घरौंदा बनाया है, उसे फसादी बातों में लिप्त करने वाले राय, मशवरे और सलाह कैसे मंज़ूर होंगे भला? वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुंचाना भी हो मुश्किल, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। बहुत अच्छा।

कोई कथानक यदि देश और समाज के शत्रुओं के खिलाफ छेड़ी गई किसी मिशन की चर्चा करता है तो वो एक समाचार की तरह साधारण भाव से देखा-पढ़ा-सूना नहीं जाता, बल्कि वो हमें रोमांचित करता है। ज़ुल्म की मुखालफत करता कमजोर सा नायक जब जीतता है तो उसे स्वाभाविक प्रशंशा और प्रसिद्धि मिलती है, जैसे जीत सिंह उर्फ़ जीता को "खोटा सिक्का" और "जुर्रत" में मिली। कथानक वीभत्स होने के बावजूद मुकेश माथुर को "वहशी" में मिली और सुनील को "मीना मर्डर केस" में मिली थी। लेकिन वही कमजोर सा नायक जब खुद स्वार्थ सिद्धि के लिए ज़ुल्म ढाएगा तो क्या उसे सराहना मिलेगी? जैसे "तीस लाख" का जीता? "मावली" जैसी घृणित रचना को पता नहीं किस भावावेश में "कांपता शहर" बनाकर नया जन्म दिया गया, क्या वो किसी भी दृष्टिकोण से मनोरंजन था, साहित्य्सृजन था? जानबूझकर ऐसे विषय गढ़ना और उसमे महिला पात्र को अश्लीलता में सराबोर पेश करना, खामखाह, नाहक के खून क़त्लोंगारत और नफरत से लिथड़े कथानक क्या रचनाकार की कलात्मकता और साहित्य सेवा है?

" ...calm down! सिंपल! जस्ट एन्जॉय इट, एंड लेट अस एन्जॉय! डोंट गेट इमोशनल एंड प्रोवोक अस टू बी इरिटेटेड ...वुइ आर नॉट बीइंग करप्टेड एनी मोर ...प्लीज़ डोंट मेक अस अपसेट एंड एंग्री, ओके!" __ ऐसा कहने से क्या मेरे द्वारा उठाये गए सवालों के जबाब मिल गये? मुझे अपना मुँह लपेट कर चुप हो जाना चाहिए?

मेरे विचार से जो रचना 'मनोरंजन के साथ-साथ' हमें शिक्षित करती है और आपस में प्रेम-भाईचारे को प्रबलता प्रदान करते हुये मानवीय मूल्यों की सुदृढ़ छाप छोडती है वही हम मित्रों और बच्चों के साथ फक्र के साथ शेयर कर पाते हैं, और ऐसी रचना का रचयिता ही मेरी निगाह में साहित्यकार है। बाकी सिर्फ व्यापारी हैं। अगर मेरे सवाल सही और जायज हैं तो जरूरत है नजरें व्यापक कर रचनात्मक दुनिया को और गौर से खंगालने की। ...मुझे बड़ी ही शिद्दत से सलाह दी गई है कि मैं अन्यत्र प्रयास करूँ। शर्त है कि वल्गर पढो, मज़े लो, सराहो,...पर वल्गर न बोलो न लिखो!! मैंने कहा था न कि 'एकला चोलो रे' मेरी नीयति है, मैं इसे नहीं बदल सकता!! ...लेकिन राह दिखाने वाले रहबर, और दिल मिलाने वाले दिलबर की संगत मिले तो खुशकिस्मती मानकर क़ुबूल करूँगा, और ख़ुशी है कि मुझे नयी राह और राही मिलते ही जा रहें हैं। निर्मल और सृजनात्मक साहित्य की दुनिया बहुत ही विशाल है, इसलिए सही बात है कि एक खूंटे से बंधा रह पाना मेरे लिए काफी कठिन है। क्योंकि मैं बहुत ही ज्यादा भ्रमित हूँ...

जब मेरे ऐसे ही विचार हैं तो क्या मैं किसी भी ग्रुप और फोरम का सदस्य बने रहने के लायक हूँ? _नेवर।

मेरी अपनी स्वछन्द दुनिया ही मेरे लिए बहुत है। बहुत ही खूबसूरत है।
सो एकला चोलो रे बोंधु,
एकला चोलो रे!
_श्री .

Saturday, February 16, 2013

आईना

अभी हाल ही में मेरे बाबूजी के समधी (जीजाजी के बुजुर्ग चाचाजी), के दर्शन हुए। झुकी कमर, 80-85 के करीब उम्र और बीमार शरीर। पर तीक्ष्ण कटाक्षपूर्ण व्यंग्य भरी कमजोर आवाज में उनकी ओजस्वी वाणी ने मुझे आईना दिखाया।

बुजुर्गवार के पधारने के बाद उन्हें उनकी सुविधानुसार ठहराया गया। ड्राईंग रूम में ही, दीवान पर उनका बिछावन लगा दिया गया। उनके पुत्र सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहे। अखबार पढ़कर उन्हें कई बार असहाय भाव से गर्दन हिलाते और देश के भविष्य के प्रति चिंता जताते देखा-सुना। उन्होंने बाबूजी की कई पुरानी बातें और उनके साथ बिताये क्षणों को याद किया और मुझे सुनाकर रोमांचित किया। और बातें करना चाहते थे पर मुझे व्यस्त देखकर रुक गये।

चूँकि घर में शादी के वजह से हम 'बच्चों' का जमघट्टा लगा था। हंसी-ख़ुशी-किलकारी और अट्टहासों का वातावरण था। मेरे बच्चे, भांजे-भांजियों ने मुझे घेर लिया और बचपन के मजाकिए यादों, और उपन्यासों की कहानियों को सुनने-सुनाने की महफ़िल-सी सजा दी। जोश में मैंने खूब कथा-कल्याण किया। खूब हंसा-हंसाया। अपने प्रिय लेखक 'पाठक साहब' की बातें की। उनके उपन्यासों के दर्शन कराते ही छीना-झपटी हुई। "मीना मर्डर केस" रिम्पी ले गई। ड्राईंगरूम के फर्श पर कालीन डालकर हम सभी, दीदी-जीजाजी, माँ, मेरी पत्नी और बच्चों का हुजूम साथ मिलकर बैठ जाते और हंसी-ठट्टे करते बतियाते, खाते-पीते, एक-दुसरे को कहते-सुनते, सुनाते जाते थे। मजाक होते तो न रुक पाने वाली हंसी और ठहाकों के गर्जन से कमरा गूंजता, आँखें छलछला आतीं। ये सब ख़ामोशी-से, कभी हँसते तो कभी मुस्काते वृद्ध चाचाजी देखते।

काम-काज के दरम्यान कई बार जीजाजी की गाडी, कभी मुझे भी ड्राइव करनी पड़ी। मेरी अपनी गाड़ी अनवरत व्यस्त रही, _रेलवे स्टेशन से घर से मार्किट से बस स्टैंड से घर से मार्किट से रेलवे स्टेशन से घर से मार्किट से रेलवे स्टेशन से घर से बस स्टैंड_ तीन दिनों खूब दौड़ी। कमल के आने के पर जब उसने ड्राइव किया तो __ उसे ब्रेक कमज़ोर मिला, उसने जीजाजी से चिंता जताई कि ऐसी हालत में मैं गाड़ी किस तरह चला कर, सपरिवार आया? और अभी तक चलाये ही जा रहा हूँ!! अगले सुबह मेरी दीदी की, लोहरदगा की बचपन की सहेली जो विवाह के बाद अब कोलकाता में रहतीं हैं, तनुजा दीदी अपने पति और बेटी के साथ आईं थीं। उसी दिन मुझे भांजियों रिम्पी और निशि (वुड-बी 'दुल्हन' बिटिया) को ब्यूटी-पार्लर ले जाना था और लौटते समय तनूजा दीदी को, सपरिवार उनके होटल से घर लिवा लाना था। जिम्मी (प्रीतिश, मेरा बेटा) साथ चला, जिसे जगन्नाथ मंदिर में इन्तेजामात देखने के लिए छोड़ना था। पहला मोड़ आते ही मेरे होश उड़ गए! गाड़ी की ब्रेक पूरी तरह फेल थी!! मैंने तत्काल क्लच से ताल-मेल मिलाकर, किटकिटा कर जोर से ब्रेक को चांपा, गियर लो किया, हैण्ड ब्रेक धीमें-से, पूरी खींची, गाड़ी घिसट कर रुक गई। "...क्या हुआ?" _तब मैंने हैरानी से ब्रेक फेल की बात बताई। ब्रेक आयल कंटेनर में झाँका। खाली! एम्प्टी!! जबकि घर (लोहरदगा) से सभी तरह से मैं चौकस गाड़ी लेकर चला था। मेरे प्राण काँप गए। मैंने कमल को तुरंत फोन किया। तब उसने अपनी बात कही। मैंने उसी क्षण उसे मेरे पास आने को कहा। वह ऑन-ड्यूटी, उसकी कम्पनी के काम-काज जो धनबाद-बोकारो में भी जारी थे, अपने सहकर्मी मित्र के साथ मेरे पास आने को निकल पडा। मैंने उसी हालत में सावधानी से रेंगते हुए जिम्मी को मंदिर छोड़ा। और तनूजा दीदी के होटल पहुंचा। "...अरे! श्रीकांत! तुम कितने बड़े हो गए हो! मुझे तो याद भी नहीं कि तुम बचपन में कैसे दिखते थे पर खूब दुबले पतले थे! कितने बदल गए हो तुम!!" तनूजा-दी, जीजाजी (उनके पति) और बिटिया को लेकर चला, बच्चियों को पार्लर छोड़ा। यूँ ही बड़ी सावधानी से गाडी चलाते मैंने तनूजा-दी को घर छोड़ा। शशि दिखा। मैंने हर्षित होकर कहा -'शशि! देख! तनूजा-दी!! शशि ने तनूजा-दी के चरण छुए। तनूजा-दी ने शशि को तत्काल पहचाना। "...हाँ! ये जस का तस है!" मैंने अभी मुंडन करवाया हुआ है। जिस रफ़्तार से नये बाल उग रहे हैं उससे नहीं लगता कि इस साल मुझे कंघी की जरूरत पड़ने वाली है। इसीलिए मैंने खुद की फोटो खिचवाने और इन्टरनेट पर अपलोड करने छोड़ दिए हैं। एक ज़माना था जब शशि के सिर पर बरगद के सामान बाल हुआ करते थे। शशि का सिर यही कहता है कि -"एक समय था जब हमपर भी बहार थी! यह संयोग ही है कि मेरे मुंडन की वजह से और शशि के 'उजड़े चमन' की वजह से -फिर भी- हम भाई ही दिखते हैं। कमल से भी तनूजा-दी की मुलाकात हुई। उनकी पुत्री ने रिम्पी से कहा -"मामा कितने अच्छे होते हैं ना!... पर मेरे कोई मामा नहीं ..!!" ये बात रिम्पी ने बहुत बाद में मुझे बतलाई। बाद में दीदी से भी मैंने कुछ डिटेल्स पूछे तो तनूजा-दी के परिवार की उनके बचपन की कहानी से मैं द्रवित और बहुत ही भावुक हो गया। अभी भी तनूजा-दी रिमोट कंट्रोल वाली पेसमेकर पे हैं। ब्रेन का 2-ऑपरेशन हो चूका है। फिर भी कोलकाता से अपनी सहेली की बेटी की शादी में शिरकत करने आईं!

कमल से मिला। अपनी-अपनी बातों पर हमें काफी हैरत हुई कि ब्रेक कैसे फेल हुआ। तत्क्षण सेक्टर-4 में मारुति वर्कशॉप का रुख किया गया। वहाँ के एक मुसलमान मिस्त्री ने गाडी की पहली आजमाइश में ही गड़बड़ पकड़ ली, कि ब्रेक आयल लीक कर जाने से ऐसा हुआ! अच्छी भली गाडी की ब्रेक आयल कैसे लीक हुई? जांचकर, ठीक कर के वापस देने में उसने जो वक़्त दिया वो हमें और परेशान करने वाला था। -'कल आइये!' _तब हमने उससे गुजारिश की, लड़की की शादी की बात कही। गाडी की ज़रुरत पर जोर दी। उसने पूछा -'आपकी बेटी की शादी है क्या, सर?' मैंने उससे कहा कि -'नहीं, मेरी भांजी की शादी है, और अभी बरात पहुँचने वाली है, प्लीज़...।' मिस्त्री ने कहा -'सर, आपका ओहदा लड़की के बाप से भी बड़ा है, "माँ-माँ" को मामा कहते हैं, आपकी भगिनी अपनी माँ, आपकी बहन को एक बार माँ बोलती है, पर आपको तो दो बार माँ पुकारती है, आपको अपने फ़र्ज़ की फिकर बिलकुल वाजिब है, आपकी चिंता हम समझते है, लंच का टाइम बीत रहा है, वर्कशॉप में कोई वर्कर नहीं है, फिर भी आइये, चलिए, हम देखते है। आप निश्चिन्त रहिये काम अभी हो जाएगा।' कमल और उसके मित्र ने इस बात को साक्षात देखा सुना। मिस्त्री, एक लेबर क्लास अनपढ़ की बातों से मन्त्रमुग्ध हम उसके पीछे चले। वो गाडी सर्विस स्टेशन में ले गया। वहाँ मौजूद हाथ पोंछते एक खलासी छोकरे को उसने फाल्ट चेक करने को बोला। छोकरे ने टाइम और भूख का हवाला दिया। मिस्त्री ने छोकरे को मीठी झिडकी दी-'अरे, चल न रे बेट्टा! बहुत शबाब वाला काम हउ! आज एक दिन लेट खइबे तो मर नइ जइबे!' उस्ताद, मिस्त्री की बात लड़के से न टाली गई। दोनों ने मिलकर फाल्ट तलाश किया। पिछले दाहिने चक्के में ब्रेक-आयल सिलेंडर की रबर, आयल-ट्यूब कटी पाई गई। मिस्त्री के अनुसार वह कट पुराना था, जो रात में -टें- बोल गया था, और सारी ब्रेक-आयल बह गई थी। नया सिलेंडर "मारुति-शोरूम/वर्कशॉप" में उपलब्ध नहीं था! मिस्त्री ने कहा -'एन.आर. वाला हीयाँ से ले लाइए।' हमने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की कि 'हम बाहरी लोग हैं, ये दूकान हमें नहीं मालूम, प्लीज़ आप ही ले लाओ।' मिस्त्री ने फिर मुझे तसल्ली दी, मुझसे पैसे लिए और आधे घंटे का टाइम दिया। बोला -'अब दिन में गर्मी बढ़ गई है, ऑफिस में बैठिये या थोडा घूम-फिर के आइये, गाडी तैयार कर देते हैं।' हम एक रेस्टुरेंट में जा बैठे। बे-मन से कुछ खाया। वापस लौटे तो गाडी में काम जारी पाया। हमारे सामने सब काम हुआ। गाड़ी ठीक हो गई। मिस्त्री का तहे दिल से शुक्रिया कर, वर्कशॉप का बिल भुगतान कर हम लौटने लगे तो मिस्त्री ने पूछा -'सर, आपलोग कहाँ से आये हैं?' हमने कहा -'राँची से।" तो उसने बतलाया कि वो भी राँची, हिंदपीड़ी का रहने वाला है। गाडी का नंबर देखकर ही वो ये समझ गया था। मैंने उससे हाथ मिलाया फिर से शुक्रिया कहा और घर लौटे। इसी दरम्यान शादी की भीड़ में कई बार जीजाजी की गाडी मुझे चलानी पड़ी क्योंकि वे रस्मों में व्यस्त हो चुके थे। कमल ने हमारी मारुति संभाल ली। शादी की रात बीती।.सुबह होते ही गाडी की जरूरत पड़ी। कमल जब हमारी मारुति के पास गया तो पिछला बाँयां चक्का '-फ्लैट-', पंक्चर पाया। मुझे पता लगा तो मेरी फिर-से हवा निकल गई।

बिटिया की बिदाई और फिर नाश्ते के बाद कमल और मैंने स्टेपनी बदलनी चाहि, तो आपस में पूछने लगे रिंच और और टूल्स कहाँ हैं। काफी 'सूंघने' के बाद पिछली सीट के कारपेट के नीचे से टूल्स मिले। जैक और हैंडल दूसरी जगह से मिले। रिंच लेकर स्टेपनी खोलना चाहा तो डिस्कस करने लगे कि किधर ले लगाएँ और किधर घुमाएँ! मैंने शेखी बघारी तो बोल्ट सिर्फ घूमता था खुलता नहीं था। अपनी झेंप, लानत और कोसनों जैसे भाषे वाली डायलोग में घोलता मैंने कमल से कहा -' तूं ही देख।' कमल भी न खोल सका। आखिर हमने हार मान ली। कमल मेनरोड के मोड़ पर, सड़क पार, पेड़ के नीचे हवा भरने वाले और पंक्चर बनाने वाले बिना छत और दीवार की टायर दूकान से मिस्त्री को जीजाजी के स्कूटर पर बिठा लाया। मिस्त्री को मेरे हवाले कर वो अपने काम पर चला गया। मिस्त्री ने पंक्चर टायर को स्टेपनी से बदला। फिर पंक्चर टायर ले कर हम मेरी मारुति से उसकी दुकान पर आ गये। मुआयना करने पर ट्यूब 'बरबाद' हो चुका निकला। मिस्त्री को नए ट्यूब के पैसे देने के लिए जेब टटोला। कई कागजों में गुम सिर्फ एक '1000' का नोट था। मुझे हिचकिचाता देखकर उसने कहा -'घबराइये मत, सर! पईसा ले के नइ भागेंगे!' मैंने कहा -'नहीं भाई, वो बात नहीं है। मैं सोच रहा था कि इसे किसी से छुट्टा करा लूँ। मिस्त्री ने कहा -'थोडा देर का काम है, सर। सिर्फ ट्यूब ही तो बदलना है, और हम आपको दुकानदार का बिल भी देंगे। या आप अपने से ले आइये। जिनके घर के आप मेहमान हैं उनको हम उस समय से जानते हैं जब हमारा मूंछ भी नहीं उगा था। गडबड नहीं होगा, सर। साहब से पूछ लीजियेगा। आप ठहरिये, कुछ पहले का काम है उसको निपटा के तुरंत ट्यूब लाने जाते हैं।' मैंने कहा 'भई, मैं बाद में आता हूँ।' समय पूछ कर, उसे 1000 का नोट सौंप कर मैं घर वापस आ गया। समय होने पर मैं उसके पास गया तो एक सफ़ेद अम्बेसेडर खड़ी थी जिसके पहिये का पंक्चर वो उस वक़्त बना रहा था। गाडी के मालिक सब्र से खड़े उसकी मिस्त्रीगिरी देख रहे थे। मैं भी उत्सुकता से देखने लगा। काम के प्रति उसकी लगन, मेहनत, तत्परता और फूर्ती देखकर मुझे बहुत बढ़िया लगा। मुझे देखकर उसने कहा कि -'रेडी है सर। ले जाइये।' उसने मुझे ट्यूब की खरीद का बिल और बाकी पैसे लौटा दिए। मैंने उससे गुजारिश की कि वो मरम्मत हो चुके पहिये को स्टेपनी से बदले दे और स्टेपनी वापस उसकी सही जगह पर कस दे। वो थोडा खिन्न-सा हो गया। मैंने कहा आप अपने हाथ का काम पूरा कर लीजिये, मैं इन्तजार कर लेता हूँ। बैठने की कोई जगह और साधन नहीं थी सो मैं खड़ा रहा। किसी भी प्रकार की मिस्त्रीगिरी को उत्सुकता से, हर मिस्त्री की कारीगरी देखना मुझे बचपन से पसंद है। कभी-कभी मिस्त्री के साथ मैं खुद लग जाता हूँ। पंक्चर पहिये को खोलना, रिम से टायर-ट्यूब अलग करना फिर मरम्मत के बाद वापस लगाना हुनर, ताक़त और मेहनत वाला काम है। जो उसने अकेले अम्बेसेडर कार के पहिये का किया। फिर एक स्कूटर का पहिया, पंक्चर बनाने के लिए खोलने लगा। अम्बेसेडर वाले बाबू ने पैसे पूछे। मिस्त्री ने जब कीमत बताई तो बाबू गुसा गये -'हद है! मुझे फिर मरम्मत की ज़रुरत नहीं पड़ेगी या तुम काम छोड़ दोगे!? हुआ ही क्या था? दो जगह चिप्पी हो तो चिपकाई ना!? पहले से कीमत की बात नहीं की तो अब तुम उसकी एडवांटेज लोगे!? मिस्त्री खामोश अपना काम करता रहा। बाबू ने कुछ और प्रलाप किया। उनके साथ के आदमी ने पूछा क्या बात है, तो बाबू ने मिस्त्री की फजीहत करनी शुरू कर दी। उनके आदमी ने कहा -'ऐसे लोगों के मुँह मत लगिए, दे दीजिये पैसे, खुद भुगतेगा।' बकते-झकते बाबू ने पैसे दिए और चले गये। स्कूटर के नन्हें से पहिये ने भी बड़ी मेहनत करवाई। उसे फिट कर के वो मेरी गाड़ी की टायर चेंज करने लगा। बीच-बीच में वो हांफता। खड़े होकर कमर सीधी कर मुंह बनाकर अंगडाई तोड़ता, सांस लेता-छोड़ता हांफता फिर जैक और रिंच से जूझता टायर बदलने लगता। तभी स्कूटर का मालिक आ गया। पैसे पूछे, तो दाम सुनकर वो भी भड़क गये -'अब एकदम डकैती मत करो!' एक 10 का नोट थमाया और जाने लगे तो मिस्त्री ने कहा-'इतना से नहीं होगा, सर, और दीजिये। स्कूटर वाले ने कहा -'लूट लो भाई, मजबूर आदमी को सभी सताते हैं तो तुम क्यों पीछे रहोगे!' एक 5 का सिक्का और थमाकर चले गये। मेरे मुँह से अनायास निकल गया -"घूस देते वक़्त हाथ में बड़े वाले कई गांधी लेकर सरकारी बाबु से हाथ जोड़कर घूस स्वीकार कर के काम कर देने का आग्रह करते वक़्त भी यूँ ही मजबूर रहते हैं, पर उस वक़्त पैसे का मोह नहीं सताता। पल्ले से सब कुछ झाड देते हैं, साहब की चिरौरी करते हैं, हाथ जोड़ते हैं पैरों पड़ते हैं 'अब आप ही माई-बाप हैं' बोलते हैं, और भी जो साहब कहें सेवा की पेशकश करते हैं पर मजदूर की मजदूरी देते वक़्त इनकी फटती है, इस वक़्त सही कीमत याद आ जाती है, मजदूर के आगे बड़े निष्ठावान बनकर उचित-अनुचित का भाषण पिलाते हैं, लेकिन डॉक्टर के यहाँ लम्बी लाइन में से झूझते पहले और तुरंत-फुरंत- इलाज़ के लिए डॉक्टर के रिसेप्शनिश्ट को 'और' पैसे की देने की इच्छा बताते हैं तब इनकी सात पुश्तों पर एहसान करते, ब्लैक का पैसा, डॉक्टर साहब की गैर मुनासिब फीस वसूली जाती है जिसे भर कर ये खुद की पीठ थपथपाते हैं -'देखा! ऐसे काम निकाला जाता है!' बोल कर दायें-बाएं से बधाईयाँ बटोरते हैं पर रिक्शे वाले का भाड़ा इन्हें ज्यादा गैर-मुनासिब लगता है और ये रिक्शेवाले की गैरत को ललकारते हैं, उसे कोसते हैं 'लेना है तो लो वर्ना जाओ' बोलकर चल पड़ने लगते हैं।" __मेरी बात सुनकर मिस्त्री की आँखें भर आईं। सिर नीचे किये उसने अपना काम पूरा किया। और वापस अपने हवा वाली जर्जर मशीन के पास जाकर बाकी काम में व्यस्त हो गया। मैंने उससे पूछा कि और कितने पैसे दूं? उसने कहा -'नहीं सर, पइसा हमको मिल गया है, जो हम अभी आपका बाकी पइसा लौटाए हैं ना, उसी में अपना मजदूरी भी ले लिए हैं।' फिर भी किसी अंतरप्रेरणा (या झक्क जो भी समझिये) के हवाले मैंने जेब में हाथ डाला और जो हाथ लगा उसे दे दिया। मिस्त्री ने भावुक होकर हाथ जोड़े -'..ज..जी प्रणाम सर!' ..और मेरे पैर छूने चाहे मैंने उसे कंधे से थाम लिया -'भाई मैं कोई '-सर-वर-' नहीं हूँ, ज्यादा ही कहना है तो सिर्फ 'भईया' बोलो, तुम्हारी ही तरह मजदूर, पराधीन आदमी हूँ पर तुम्हारी तरह मेहनत मशक्कत मैं नहीं करता, मजदूरों के साथ मिलकर मजदूरी करना मेरा शौक है इसीलिए तुम्हारे काम और योगदान की कीमत पहचानता हूँ। मेरे दिए पैसे से तुम्हारा कुछ भला नहीं होने वाला ये तुम्हारे अपने काम के प्रति तुम्हारी हुनर,लगन और तुम्हारे स्वाभिमान को मेरा सेल्यूट है।' और मैंने उसे अपने गले से लगा लिया। "विमल" के 'हज़ार हाथ' कैसे और क्यूँ कर हैं? मैं विमल नहीं हूँ और न उसके जैसे कारनामे जानता हूँ, लेकिन ज़ज्बात उससे मिलते-जुलते हैं। मैं हज़ार का दावा इस ज़िन्दगी में कभी नहीं कर पाउँगा, लेकिन सैकड़ा की कहने की सोच सकता हूँ।

घर लौट कर मैंने जीजाजी को सेल्यूट किया तो उनके भाई (बुजुर्ग चचाजी के पुत्र, मोहन भैया) ने मजाक से पूछा -'ई का नौटंकी ह, हो?' तब मैंने उन्हें टायर बनाने वाले मिस्त्री की बात कही और कहा कि वो जीजाजी की कितनी इज्ज़त करता है! मेरा सेल्यूट उस मजदूर की तरफ से है, जिसे आपने आपना मानकर उसका मान बढ़ाया है। यही असली कमाई है। जो मेरे बाबूजी ने अर्जित की है। जो आपने भी कमाने में कोई कसर न छोड़ी। मजदूर की भावना ने बाबूजी की याद दिला दी, सो मैं आपको सलाम करता हूँ।' सुनकर जीजाजी और मोहन भैया भी बाबूजी को याद कर भावुक हो गए। मोहन भैया ने बताया कि उनके पास अभी भी दर्जनों चिट्ठियाँ महफूज़ हैं जो कभी बाबूजी ने उन्हें लिखीं थीं। बुजुर्गवार ने इसे भी खामोशी से देखा-सूना।
मैं लेबर-क्लास के लोगों को ही क्यूँ अपना दोस्त बनाना पसंद करता हूँ वजह बयान करने के लिए इसी घटनाक्रम में मेरे साथ हुई दो बातों को मिसाल के तौर पर लिखता हूँ। 1. बोकारो रेलवे स्टेशन पर जब हमलोग चाचाजी को वापसी की गाडी पर चढाने गए थे तब अपनी आदत के मुताबिक वक़्तगुजारी के लिए मैं प्लेटफ़ोर्म पर स्थित बुक-स्टाल पर जा कर किताबे देखने लगा। तभी मेरे मोबाइल पे कॉल आ गई। बातचीत और किताबों में मैं ऐसा खोया कि 'शरलौक होम्स के सर्वश्रेष्ठ कारनामे' जिसे वेदप्रकाश कम्बोज ने हिंदी में अनुवादित किया है, मुझे पसंद आ गई, और मैं उसे खरीदने के लिहाज़ से पढने लगा। निर्णय लेने में देर नहीं हुई। मैंने उसे खरीद लिया और उसे पढ़ते हुए जीजाजी वगैरह के पास आ खड़ा हुआ। गाडी के इन्तजार में हम गप-शप में लगे थे कि किसी अनजान लड़के ने मुझे मेरी पीठ पर ऊँगली से स्पर्श करके मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं चौंककर घूमा। -'हाँ जी?' उसने कहा -'वो किताब वाला दुकानदार आपको बुला रहा है!' (मैंने सोचा कहीं मैं पैसे चुकाना तो नहीं भूल गया!) -'क्यों?' लड़के ने मुझसे कहा -'शायद आपका मोबाइल वहीं रह गया है!' -'...अर्रे बाप रे !' मैं लपककर किताब दूकान पर पहुंचा। दुकानदार ने मुझे पहचाना, मुस्कुराया, मुझे मेरा फोन दिखा कर अर्थपूर्ण भाव से उसे हिलाया। मैंने झेंपते हुए सहमती में मुंडी हिलाई। बिना कुछ बोले उसने मेरा मोबाइल मझे सौंप दिया। मैं धन्यवाद में बहुत कुछ कहना चाहता था। पर सिर्फ अंग्रेजी वाला 'थैंक्स' मेरे मुंह से निकला। तभी गाडी आ गई। जीजाजी ने मुझे पुकारा। मैं वापस उनके पास गया तो उन्होंने, जो ये सारा तमाशा देखा था, मेरी पीठ पर कस कर एक मुक्का दिया और हंसने लगे -'तूं कभी नहीं सुधरेगा।' ... चाचाजी को गाडी पर बिठाकर लौटते वक़्त मैं वापस किताब दूकान पर गया। तब मैंने दुकानदार से पूरी बातचित की। हाथ मिलाया। हम दोनों हँसे-मुस्कुराए। मैंने कहा की जब भी आइंदे मैं बोकारो आऊंगा किताब लेनी हो या नहीं आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगा। अब आप मेरे दोस्त हो। उसने सिर झुककर उलटे मेरा शुक्रिया कहा। मैंने वापस उसे शुक्रिया कहा। फिर हम दोनों ठठा कर हँसे। मैंने उसे विश किया और लौट आया।  2. मेरे नए चश्में का फ्रेम ढीला था जो बार-बार बहकर मेरी नाक पर आ जाता था। मैंने सोचा की राँची में जिसकी दूकान से ये चश्मा बनवाया था उसी से ठीक करवाऊंगा। वापस राँची आनेपर मैं दुकानदार के पास जाकर अपनी समस्या बतलाई। वो नौजवान सेठ अपनी कुर्सी पर पसरा हुआ था। उसने जैसे मेरे पुरखों पर कृपा करते हुए मेरी बात सुनी। और बेमन से अलसाए हुए बोला -'अभी लंच का टाइम है, ये कोई वक़्त है आने का? सभी स्टाफ लंच पे गए हुए हैं। बाद में आइये।' मुझे बहुत अचम्भा हुआ मन ही मन बोला कि फिर दूकान खोलकर क्यूँ बैठे हो! लेकिन मैंने फिर गुजारिश की कि -'मैं सफ़र पे हूँ, बाहर से आया हूँ, फिर पता नहीं कब आऊंगा, प्लीज़ आप खुद ही इसे ठीक कर दीजिये, जो भी मेहनताना होगा मैं चुकाऊंगा।' उसने उपेक्षा से कहा -'मैं ये सब नहीं करता, इसके लिए मैंने नौकर रखे हुए हैं। बोला न बाद में आइये!. मेरा मन किया कि उसे गर्दन से पकड़कर पेंडुलम की तरह झुलाऊं! ...तभी दूकान पर मौजूद मैले कुचैले कपडे पहने एक काले-कलूटे गरीब-से छोकरे ने मुझसे पूछा -'क्या हुआ है,सर?' मैंने चश्मा उतारकर उसे दिखाया, प्रोब्लम बताई की ढीला है। बह कर नाक की फुनगी पर आ जाता है, जिसे बार-बार सर्दी की तरह सुडकना पड़ता है। लडके की हंसी छुट गई। उसने कहा -'बैठिये, हम देखते हैं।' तभी दुकानदार ने जोर से पुकार कर छोकरे को डांटा -'अरे, अब तुम अपना कारीगरी मत दिखाओ! जाओ जा के उधर बैठो।' लेकिन पता नहीं क्यों लड़का (शायद) जानबूझकर अपने मालिक की बात अनसुनी-सी करता मेरा चश्मा लिए वर्कशॉप के भीतर चला गया। मैंने 'मलिक'जी' की तरफ मुस्कुराकर देखा तो उसने दूसरी तरफ मुँह घुमा लिया। मैं वहीं खड़ा आईने में देख-देखकर तरह-तरह के पोज़ बनाने लगा। थोड़ी देर में लड़का मेरे चश्मे को एक कपडे से पोंछता हुआ आया और मुझे थामकर बोला -'पहनकर देखिये, सर।' मैंने पहना। फर्क साफ़ महसूस हुआ। चश्मा बड़ी मजबूती से मेरी आँखों पर सज गया। मैंने गुर्राकर दिखावा किया -'इसे गर्म किया था क्या?' वो बोला -'जी! उसके बिना कैसे होता!' मैं मुस्कुराया। प्रत्युत्तर में लड़का भी मुस्कुराया। मैंने अपना हाथ आगे किया। उसने मेरा हाथ पूरी गर्मजोशी से थामकर हिलाया। मैंने उसे थैंक-यू कहा। वह शरमाया। मैंने 'मालिक जी' की और देखा और लड़के से बोला -'यारा! मैं कोई सर-वर नहीं हूँ!' मैंने 'मालिक जी' की ओर इशारा कर कहा -'सर तो ये लोग होते हैं, क्यूँ सर?' उसने फिर मुँह घुमा लिया। मैं उसके सामने जा खड़ा हुआ और सीटी मारी। उसने चौंक कर मझे देखा। मैंने सुनील के स्टाइल में उससे कहा -'थैंक-यू फॉर नथिंग!' वो कुछ बोलता उससे पहले ही मैंने लड़के को आँख मारी, और निकल लिया। अब बोलिए ....

कितने मेहनतकश मजदूर आपको जानते हैं? कितने रिक्शेवाले आपकी इज्ज़त करते हैं? भीषण गर्मी में 2 किमी जब "आप" रिक्शा पर पैसेंजर बिठाकर खींचोगे और 2-रूपए मेंहनताना पावोगे तो क्या आपको मंज़ूर होगा? आप कितने सरकारी बाबुओं को जानते हैं? कितने सरकारी बाबू आपको सलाम बोलते हैं? आप किसको सलाम बोलते हैं? कौन आपकी इज्ज़त करता है? कौन आपको गले लगाता है? आप किसको गले लगाते हैं? आप किसकी इज्ज़त करते हैं? आपकी एक आवाज़ पर कौन निःस्वार्थ आपकी सहायता पर तत्पर रहता और करता है? ऐसे कितने लोगों को आप जानते हैं? उनमे से कौन सामाजिक ओहदे में किस मुकाम पर आसीन है? मजदूर से बात करते वक़्त आपकी भाषा और वाणी कैसी होती है? मजदूर के मजदूरी की कीमत आप कैसे, किस पैमाने से नाप कर तय करते और अदा करते हैं? शादी-ब्याह, जन्म-मरण में कौन आपकी सहायता करता है? आपकी सेवा के बाद कितने मजदूर आपके द्वार से संतुष्ट और प्रसन्न हो कर विदा होते हैं? आपके साथ काम करने वाले कितने मजदूर फिर-से दुबारा आपकी सेवा के लिए तत्पर रहते हैं, आपका काम उत्साह से, लगन से करते नहीं अघाते? ठीक है, मजदूरी की कीमत तय और नियत होनी चाहिए ताकि बहस ही न हो। सही कीमत चुकाइये। हाथ में नोट लेकर आप मजदूर के पीछे दौड़ते हैं या मजदूर अपनी सेवा के साथ सदा आपके पीछे खड़ा रहता है? टिप की बात छोडिये। टिप से परहेज कीजिये। टिप ही बैलेंस बिगाड़ता है। क्या मैंने टायर वाले को टिप दी थी? क्या मैं खुद को नायक साबित करना चाहता था? क्या ऐसा करते पब्लिक ने मुझे सरेआम देखा था? क्या मेरे एक मजदूर को गले लगाने की पब्लिसिटी हुई? पब्लिसिटी यहाँ हो रही है। जो मैं यहाँ इन लाइनों को लिख रहा हूँ। ताकि लोग जानें और मुझे "मान" दें। यह तो स्वार्थ हो गया। पैसे खर्च कर के झूटी ख्याति की बेशर्म कोशिश हो गई। लानत है, ऐसी ओछी नीयत पर! तो क्या मुझे ये बातें शेयर नहीं करनी चाहिए? अगर किया तो क्या गुनाह किया? नेकी कर दरिया में डाल दूँ तो मेरे बच्चों को कैसे पता चलेगा कि मजदूर से दोस्ती और उसकी इज्ज़त और मदद करना उनके दादाजी (बाबा) और पिता का जूनून था, है? आज बाबूजी को हमारे यहाँ जितने लोग 'मिस' करते हैं, उनमे से सबसे ज्यादा तादाद मजदूरों की ही है। कोई सेठ, नेता, बाहुबली या धनकुबेर मेरे बाबूजी को मिस नहीं करता। बाबूजी को शहर में देखकर मजदूर ही उन्हें प्रणाम करते थे। बाबूजी को बाज़ार जाना होता या सिनेमा, उनके लिए रिक्शे वाले आपस में लड़ते। सिनेमा वाले बुकिंग क्लर्क (सुभाष भईया) बाबूजी की आमद पर टिकट और मुनासिब सीट सुरक्षित रखते। स्वर्गीय डॉक्टर बिसु बाबु के यहाँ बाबूजी घूमने के ख्याल से पैदल ही 2-किलोमीटर चले जाते तो इलाज के बाद बिसु बाबु बाबूजी के मना करने पर भी उनके लिए रिक्शा बुलवा देते। दवा दुकानदार (गोपाल चाचा) बाबूजी को दुकान के भीतर बुलाकर बिठाते और सभी दवाइयाँ आराम से चाय पिलाकर देते। जिस दुकान पर बाबूजी चले जाते दुकानदार पैसे की बात बाद में करता सामान पहले पैक कर रिक्शा पर रखवा देता था। उनके सहकर्मी जो आज मेरे सहकर्मी हैं, वही मजदूर तबका बाबूजी को मिस करता है। वही लोग आज मेरी हर मदद और सहायता को सदा तैयार रहते है, और मैं उनके। क्योंकि ये ही मेरे बाबूजी के संगी-साथी मेरी अंतिम बारात के बाराती होंगे, हिस्सेदार जैसे रिश्तेदार नहीं, जो मुर्दे की बोटियाँ नोचते हुए शर्माते तक नहीं!

मुझे खुद को 'भईया' कहलवाने का बहुत शौक है। कोई स्नेह से या यूँ ही मुझे भईया बोलता है तो मुझे बड़ी ख़ुशी होती है। लेकिन जिम्मी, सन्नी के मित्र और अभी बोकारो में मेरे भांजे उज्जवल के जो दोस्त अपनी निशि दीदी की शादी में शरीक होने आये थे सभी मुझे अंकल बोलते हैं। मैं उनसे सहमत होता हूँ पर 'बुढउ' की तरह कुढ़ कर रह जाता हूँ। मेरे घर की दाई की पोती मुझे दादा कहती है और मैं उसे (हँसते हुए) मारने दौडाता हूँ। रिम्पी ने अपने बेटे 'शौर्य' को सिखाया है कि वो मुझे 'बड़े-मामा-नानू' कहा करे। (...हाय रे बप्पा! हम 'नाना' बन गेलियई!) एक शाम मैं जीजाजी के साथ मार्केट गया तो अपनी लत के मुताबिक जीजाजी एक पान की दूकान पर जा पंहुचे। उन्होंने हम दोनों के लिए पान बनाने का आर्डर दिया। मैंने जीजाजी से मजाक में कहा कि बचपन में एक बार आपने मुझे प्लांट (बोकारो इस्पात कारखाना) घुमाया था, इससे पहले की मेरी उम्र हो जाए एक बार फिर घूमने की तमन्ना है। जीजाजी कुछ कहते तभी दुकानदार के लड़के ने जो दूकान 'बढ़ा' रहा था, एक डिस्प्ले रैक अन्दर रखने की गरज से मुझसे बोला -'अंकल! जरा साइड हटिये।' ("_दुर्र फीटे मूँ!") मैं चिढ गया, और जीजाजी से बोला -'अब तो जरूर ही घूमना पड़ेगा। इस आदमी (लड़के) ने मुझे आइना जो दिखा दिया!' जीजाजी ठठा कर हँसे। मेरे बेटे मुझे 'पापा' कहते हैं। मैंने कभी ऐतराज नहीं किया। (हालांकि मुझे इस शब्द से भी चिढ है, पापी का आका = पापा!)। पर मेरी बिटिया गुनगुन को मैंने सबक सिखाया है कि वो पापा-मम्मी  "_'अपने' पापा-मम्मी_" (कमल और रूपा को ही) कहे पर मुझे _"बाबूजी_" पुकारा करे, 'चाचा' नहीं, 'ताउ' नहीं, 'बड़े-पापा' भी नहीं। इसीलिए हरिवंश राय बच्चन जी को अमित जी जब "बाबूजी" लिखते-बोलते हैं तो अमित जी से स्वाभाविक स्नेह हो जाता है। यह शब्द "बाबूजी" सदैव मेरे बाबूजी को मेरे अंग-संग रखता है। मेरे बाबूजी, जो मुझे हमेशा हिदायत करते रहते हैं कि कभी अपनी औकात मत भूलो। मैंने जिम्मी,सन्नी, लड्डू से हमेशा कहा है कि अब्दुल कलाम बनो, आइंस्टीन बनो, स्टिफन हाकिंग बनो पर उससे पहले इंसान बनो। मुझे फक्र है कि मेरे बच्चे मुझे उन पर नाज़ करने का हमेशा अवसर देते रहते हैं। अभी मेरी भांजी (उनकी निशि दीदी) की शादी में उनकी मौजूदगी और 'भाई' की भूमिका पर दीदी-जीजाजी, मोहन भईया ने मेरी पीठ ठोकी कि मैंने अपने बच्चों को बहुत ही अच्छे संस्कार दिए हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। बच्चों में ये जन्मजात गुण स्वयं बाबूजी और ईश्वर की मुझ पर असीम कृपा है। गुनगुन का मुझे "_बाबूजी_" कहना समूचे परिवार, रिश्तेदारों को खूब भाता है। गुनगुन और मेरा आपस में पिता-पुत्री का प्रेम, जिम्मी और गुनगुन का आपस में सगे भाई-बहन का प्रेम, वीणा और कमल का आपस में भाभी-देवर से बढ़कर माँ-बेटे जैसा प्रेम, वीणा और गुनगुन का आपस में माँ-बेटी का प्रेम घर में एक मिसाल है। मुझे मेरी बेटी पर नाज़ है और यकीन है कि वो जो भी करेगी, जो भी बनेगी सभी उस पर फक्र करेंगे। क्या हुआ जो उसके जन्मदाता मैं और मेरी पत्नी वीणा का शरीर नहीं हैं। पर हम उसके माँ-बाबूजी हैं। गुनगुन, मेरी बेटी का जन्म मेरे घर में मेरे लिए प्रभु का सबसे बड़ा वरदान है।

किसने कहा? ये इम्पोर्टेंट नहीं क्योंकि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती। बाबूजी की बात निकलने पर मुझे फिर-से वही उपदेश सुनने को मिले जो मैं उनके देहावसान के बाद से लगातार सुनते चला आ रहा हूँ, जो रिश्तेदारों के जमघट्टे में आम 'मुझ' पर प्रहार करने के लिए, एक तरह से 'मुझे' नीचा दिखाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं, पर उनपर अमल करने को मेरा जी नहीं चाहता __कि -'तोहार बाबूजी साल में एक बेरी सबहन रिस्तेदारन के ईहाँ हर हाल में घूमे-फीरे, मीले-जूले जात रहन।' __कि -'तोहार बाबूजी के किरपा से न जाने के55तना आदमी के नौकरी, रोजी-रोजगार भ गईल, बाकी तूं त ओकनी के पनियों न (पानी भी नहीं) पूछअ ल!' __कि -'तुमने उनके नाम और प्रतिष्ठा को बनाय रखने के लिए कुछ भी नहीं किया, बड़े अफ़सोस की बात है!' __कि -'तोहार बाबूजी हमेशा सबहन के चिट्ठी द्वारा संपर्क में रहत रहन, आपन हरेक चिट्ठी में आपन पता लिखके अंतरदेसी भेजत रहन, लेकिन तूं त आजकल फ़ोन भी ना करे ल!' __कि -'तोहार बाबूजी तूं लोग खातिर मकान बनवा देहलन, बाकि तूं त ए गो कोठरियों ना बनवइलअ!'  मैं कुछ भी गुस्ताखी पूर्ण उत्तर नहीं दे सकता कि बाबूजी जो करते थे वो मैं क्यों नहीं करता, क्योंकि प्रश्न पूछने वाले श्रीमान को इसका कारण सहित उत्तर भली-भाँती मालूम है। आइना मुझे दिखाने के बदले उसमे खुद को ढूंढें और पहचानने की कोशिश करें कि क्या वे वही 25 साल पहले वाले ही श्रीमंत हैं? क्या हालात भी वही हैं? क्या परिवेश भी वही हैं? क्या माहौल भी वही हैं? आज बाबूजी की बनवाई हुई मकान खड़ी है, सलामत है तो कौन उसकी देखभाल और रख-रखाव की चिंता कर रहा है? बाबूजी के गुजरने के बाद हम पितृहीन अनाथों को किसने अपनाया? तिवारी जी के देहावसान के बाद उनके अनाथ परिवार को आपने कब और कितनी बार याद किया या पूछा? किसने बाबूजी का जीवन भर खून पीया और उनके गुजरते ही हमारी बोटियाँ भी नोच डाली? उन्हें क्यों नहीं सबक दिया गया? किसने बाबूजी के लगाए फुलवारी को आग लगाईं? मेरे बाबूजी से इतना ही प्रेम था तो उन दरिंदों को हम पर ज़ुल्म ढाने से क्यों नहीं रोका गया? उस वक़्त जब सहायता के लिए हम आप श्रीमंत सहित सबके दरवाजे-दरवाजे फिरते थे तब हमारा हाथ आपने क्यों नहीं थामा? आज आपको स्वर्गीय तिवारी जी याद आ रहे हैं, लेकिन आपके सामने उन्ही तिवारी जी की संतानों की तरक्की और उन्नती में भी खोट दिख रहा है तो इसका क्या इलाज़ है? आज हमारे दिलों में खून के रिश्ते में से स्वार्थ और नफरत की बू आती है तो इसे पैदा करने वाला कौन है? कौन है? किसने ये विध्वंश मचाया? किसने हमें तबाह किया? क्यों किया? कोई उस राक्षस को क्यों नहीं उपदेश देता? हर ज़ुल्म सहने के बाद भी हम ही अभी-भी बे-वजह क्यूँ हर किसी के निशाने पर हैं? क्या बिगाड़ा था हमने किसी का?  .................. इसके बावजूद आज जब हम संभले हैं तो क्यों हमारे सूखते घावों पर विष मला जा रहा है? हमारी हंसी में सबको उछ्रिन्खलता क्यों दिखती है, आंसू के बाद बड़ी मेहनत से पाई निश्छल मुस्कान क्यों नहीं दिखती?? आइना खुद देखिये औए खुद को पहचानिए। शायद आपकी शक्ल देखकर आइना ही आपको न पहचाने, क्योंकि अब आपकी समाई आईने में नहीं समंदर में ही संभव है।

विदा की घड़ियाँ आईं तो कई फेरे फिर-से स्टेशन और बस स्टैंड के लगे। सभी मेहमानों को विदा किया गया। फिर बुजुर्ग चचाजी की बारी आई तो जीजा जी ने जबरन मुझे अपने साथ ले लिया। रास्ते में हम पान खाने के लिए रुके। कभी मैं पान खाने का बहुत ही शौक़ीन था। अब आदत छूट गई है। लेकिन जीजाजी के स्नेहिल सान्निध्य का सुख उठाने के लिए उनके साथ अपने पसंदीदा ब्रांड के मसालों की खुशबु वाले पान जरूर खाता हूँ। पान की दूकान पर मोहन भईया ने अपनी बातों से मेरा दिल जीत लिया। उन्होंने मुझे बहुत आशीर्वाद दिया। मेरी पीठ और सिर को सहलाया। बुजुर्गवार (जीजाजी की) गाडी में अगली सीट पर ही बैठे हमें देखते रहे। जब हम फिर चले तो आगे बैठे चाचाजी, जीजाजी से गाडी के बारे में पूछते थे -'पेट्रोल से चलेला कि डीजल से?' -'गाडी के का नाम ह?' -'कय (कितने) आदमी समा लन?" (जबकि मुझे मिलाकर उस वक़्त 6 ठुंसे हुए थे)...

हम स्टेशन पहुंचे। सबने सामान सम्भाला। बुजुर्गवार को सावधानी से उतारकर खड़ा किया गया। लाठी और एक व्यक्ति (मोहन भईया) के सहारे के लिए वो ठिठके खड़े थे। मुझे नजदीक देखकर उन्होंने इशारे से मुझे पास बुलाया पूछे -'बहुत किताब पढ़अ ल?' 
मैंने कहा -'जी हाँ।'
'कइसन, कौन विषय के?'
"जासूसी।'
जासूसी?'
'जी।'
'ई गाडी कय बेर चलवलअ ह?'
'कई बार।'
'केतना नंबर ह?'
'जी?'
'अरे भाई ई गाडी के केतना नंबर ह?'
'ओह!'
मैं गाडी के नंबर प्लेट देखने को लपका तो उन्होंने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया -'रहे द, रहे द। फेल त हो गइलअ!' इतना कह वृद्ध स्वयं ही स्टेशन की तरफ लपक लिए। और मैं ....मुझे लगा की आइना अब मुझे फिर से देखना पड़ेगा ... या बुजुर्वार दिखा गए! ....सोचो, सोचो (और माथा खराब करो)।
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अगले दिन सुबह 15, फरवरी, 2013 की सुबह मैंने 'मन्त्र-स्नान' किया। और वापस घर (लोहरदगा) को लौट चले। मिलन के बाद की जुदाई बड़ी दुःख देती है। कौन नहीं रोया!? सभी रोये। मेरी हर बात सबको रुला रही थी, मैं हँसाना चाहता था तो उलटे सभी रोते थे। मेरे दामाद जी, (रिम्पी के पति) उदयन जी, मेरी बात पर मेरे हाथ जोड़कर निवेदन पर कि 'आइयेगा' बड़े भावुक हो कर मेरी आगोश में समा गए, यह देख रिम्पी फफक पड़ी। और मुझसे लिपटकर फूट-फूटकर कर रोने लगी। माँ, गोल्डी, वीणा और दीदी-जीजाजी के भी आंसू बेकाबू हो गये। यहाँ तक कि जिम्मी, सन्नी भी उदास होकर सिर झुकाय विनम्र खड़े सबको प्यार के आंसुओं में सराबोर होते देखते रहे। जिम्मी और सन्नी ने मुझसे इजाज़त ली थी कि वे 'निशि-दी' के ससुराल रेशैप्शन पार्टी में बुआ (फुआ)-फूफा जी के साथ जायेंगे। सब रो रहे थे लेकिन एक मैं ही पत्थर दिल दांत निपोर रहा था। मेरे शरीर में रोने और आंसू बहाने वाला सिस्टम बिगड़ा हुआ जो है। मैंने जब पहली बार बाबूजी की ब्रेन ट्यूमर (टर्न्ड इन कैंसर) की रिपोर्ट देखि तब भी न रोया। जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके पार्थिव शरीर को अपनी गोद में थामे हुए भी मैं न रोया। जब मैंने उन्हें मुखाग्नि दी तब भी न रोया। जब पगड़ी की रस्म हुई तो मैं मुरारी मामा की ओर देखकर सुबकने लगा। लेकिन ...अब मैं क्या कहूँ, शायद पागल हो गया हूँ, ...मैं देशभक्ति के गीतों पर और मनोज कुमार जी की फिल्म "पूरब और पश्चिम" के गीत 'दुल्हन चली' के एक ख़ास तान पर अपने आंसू नहीं रोक पाता। खैर,...हमने विदा ली और घर को लौट चले।
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रास्ते भर माँ सरस्वती की पूजा के पंडालों में बजते फ़िल्मी, डिस्को म्यूजिक सुनते हम घर की तरफ वापस लौट निकले। मैंने ड्राइविंग सम्भाली। हम भी जब बचपन में अपने मोहल्ले में चंदा करके सरस्वती माँ की पूजा करते थे तो तब के हिट फिल्मों के गाने या डायलाग ही बजाते और फक्र से सुनते सुनाते थे। दुर्गा पूजा के पंडालों में अब दुर्गाशप्तशती के मंतोच्चार, लखबीर सिंह लक्खा, नरेन्द्र चंचल, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण, अनूप जलोटा इत्यादि-इत्यादि के भजन बजते हैं पर सरस्वती पूजा _"ई तो स्टूडेंट सब के परब हैय न सर! ए.आर. रहमान के म्यूजिक में भी तो सरस्वती माँ का वास है ना! बजावे दीजिये ना।" ...ओके! ओके! ओके! हम भी 'शोले', 'दीवार' के डायलाग और उषा उथुप के "...रंबा हो हो हो"," ...हरी ओम हरी", सुभास घई की फिल्म 'क़र्ज़' का गाना "...हे! तुमने कभी किसी से प्यार किया? ...किया। ...मैंने भी किया! ...ॐ शान्ति ओम", इत्यादि बजाते ही थे। आप "...फेविकोल" बजाओ या चिपकाओ कौन रोकेगा!! फिल्म दबन्ग-2 का ये गाना हर शहर के हर पूजा पंडालों में बजता पाया गया। कॉम्पिटिशन सिर्फ इस बात का था कौन इसे कितने जोर की आवाज़ में बजा सकता था। 'फेविकोल' को सुनते लोहरदगा आये तो यहाँ भी वही गाना। बाकी गानों को इस गाने ने इस बार मात दे दी। पता नहीं यह गाना किसको आइना दिखा रहा है ...
फिलहाल नमस्ते। 
_श्री .

Friday, February 15, 2013

Oh Goddess Sarasvathi,

15, फ़रवरी`2013
बोकारो---------रांची--------लोहरदगा
सरस्वती वन्दना  
Hindu Goddess Saraswati Image 
Saraswati Vandana Lyrics 
 Devotional Prayer to Goddess Saraswati
"या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदण्डमंडितकरा या श्वेतपद्मासना।।
या ब्रम्हाच्युतशंकर प्रभितिर्भिःदैवै सदावन्दिता 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाडयापहा।।"
अर्थात
 जिनका वर्ण कुंद-इंदु (बेला/चमेली के पुष्प),चन्द्रमा अथवा बर्फ के परत की तरह शुभ्र (श्वेत) है,
जिनके वस्त्र श्वेत हैं (जिन्होनें शुभ्र-श्वेत वस्त्र धारण किया हुआ है),
जिनके हाथ वीणा से सुशोभित हैं,
जो श्वेत-कमल के पुष्प पर आसीन हैं,
ब्रम्हा, विष्णु और महेश जिनकी सदा वन्दना करते हैं,
वे (वह) भगवती, माता सरस्वती सदा मेरी (हमारी) रक्षा करें।

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Ya Kundendu Tushaara Haara Dhavalaa
Ya Shubhra Vastraavrita
Ya Veena Vara Danda Manditakara
Ya Shveta Padmaasana

Ya Brahma Achyutaha Shankara Prabrithibhih
Devai SadaaVanditaa
Saa Maam Paatu Saraswathi Bhagavati
Nishyesha Jyaadyaapaha

Saraswati Vandana Meaning

Oh Goddess Sarasvathi,
who is fair as a jasmine flower,
the moon or a snow flake,
who is dressed in white
and whose hands are adorned by veena,
who is seated in a white lotus,
to whom Brahma, Vishnu and Maheshwara pray,
please protect us.
 निवेदक :
विनीत,
_श्रीकान्त तिवारी .