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Saturday, December 29, 2012

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - दूसरा दिन

22-12-12 शनिवार ; जगन्नाथ पुरी :

आज सुबह हम सकुशल 'पुरी' पहुँच गये। स्टेशन पर मोटर गाडी हमें हमारे होटल ले जाने के लिए उपलब्ध थी। हम जैसे ही चेक इन किये बच्चों, ख़ास कर जिम्मी, ने सबसे पहले सभी बात छोड़ कर सी-बीच जाने की जिद्द पकड़ ली। मैं भी उन्हीं के सुर-में-सुर मिलाकर बातें करने लगा। अन्ततः सी-बीच पर जाने का फैसला सर्वसम्मति से पास हुआ, सभी ने सी-बीच, समुद्र स्नान के मुनासिब कपडे पहने/बदले, मैंने डुग्गु को कंधे पर बिठाया और सी-बीच के लिए निकल पड़े। हम सभी पैदल ही सी-बीच पहुँच गये। वहाँ पहुँचते ही मैं नन्हा बच्चा बन गया।

सी-बीच पर मेला जैसा दृश्य था, अपार भीड़ थी, हर्षित-उल्लसित जन-समूह के अभूतपूर्व मनमोहक दृश्य से हमारी सारी थकान मिट गई। भीड़ और पानी में किलोल करते हज़ारों लोगों की मौजूदगी के बावजूद सी-बीच खाली-खाली लगता था।

मुझे नेत्र दोष है। नेत्र विकार मुझे बचपन से है जिसके कारण मैं हर वक़्त चश्मे का मोहताज़ हूँ। मुझे 2-प्रकार के चश्मे पहनने पड़ते है। एक फोटोक्रोमैटिक ड्राइविंग इत्यादि के लिए, दूसरा बाइफ़ोकल पढने-लिखने के लिए। बीच पर मैं फोटोक्रोमैटिक चश्मे को पहने गया, जिसे मैं हमेशा पहनता हूँ, जिसकी मुझे आदत पड़ गई है। महिलाओं ने रेत पर चादर बिछाई, एक रंगीन छतरी वाले से बड़ा छाता लेकर रेत में खड़ाकर उसकी छाँव में सभी अपने कपडे बदलने लगे। मैंने अपना T-शर्ट और जूते महिलाओं के पास रखा और जिम्मी, सन्नी, लड्डू और गुनगुन के पीछे किलकारियां मरता भागा। मैं उन्हें लगातार हिदायतें दे कर कंट्रोल में रह कर स्नान करने और खेलने-कूदने को कह रहा था। गुनगुन पानी में जाने से डर रही थी और गीले रेत पर कूद-फांद रही थी। तभी माँ आ गई और सभी बच्चों के सिर को निवछ-निवछ कर जय गंगा माइया कहकर समुद्र में सिक्के अर्पण करने लगी। मैं भी धार्मिक भाव से "जलनिधि" की स्तुति करने लगा, और मंत्रोच्चार कर नतमस्तक हो गया। तभी माँ ने मेरे सिर को निवछकर सिक्के समुद्र में उछालना चाहा, पर मैंने देखा कि वो सिक्कों को ज्यादा दूर नहीं फेंक पा रही थी सो, मैंने माँ के हाथ से सिक्के लेकर जयजयकार का उदघोष करते हुए जोर से सिक्कों को दूर तक समुद्र के अर्पण कर दिया। उसके बाद फिर मेरी उधम शुरू हो गई, बच्चों के साथ मैंने जमकर डुबकियाँ लगाईं। अचानक मुझे कुछ गडबडी का अहसास हुआ! मुझे हमारा शेड, माँ, वीणा, रूपा, डुग्गु नज़र नहीं आ रहे थे। मुझे सबकुछ धुंधला-धुंधला दिख रहा था!! ...हाय बाप ! ...मेरा चश्मा !! ...मेरा चश्मा !!! बड़ी-बड़ी लहरों से उलझते-उठते-गिरते-पटकाते मैं नीचे पानी  अपने दोनों हाथों की उँगलियों से रेत को बुरी तरह खंसोटने लगा, तब तक मेरी गुहार बच्चों ने भी सुन ली थी, वे भी मेरा चश्मा ढूँढने लगे, किनारे से माँ, वीणा भी आ गईं और मुझे डांटने लगीं। हमने खूब ढूंढा पर अफ़सोस मेरा चश्मा समुद्र के अर्पण हो चूका था। जलनिधि ने मुझसे मेरा चश्मा चीन लिया (पहनेंगे क्या?)_ ! ये थी हमारी पहली "धक्क"!! इसी बीच एक बड़ी लहर की मार लड्डू से झेला न गया और वो बुरी तरह त्योराकर गिरा और पानी में डूबने-उतराने लगा। हमने उसे संभाला। हमने उसका हाल पूछा तो पाया कि बच्चे के घुटने बुरी तरह ऐंठ गए थे और उसे गहरी पीड़ा हो रही थी, वो ठंढ और भय के कारण थरथर काँप रहा था। हम उसे किनारे अपने शेड के पास ले गए, कमल ने उसके घुटने की मालिश की, उसे पैर झटकने में दर्द हो रहा था और उससे चला नहीं जा रहा था। ये थी हमारी दूसरी "धक्क!!" हमने धुप में उसे बिठाया और उसके घुटने के मुआयने से जाना कि किसी किस्म का फ्रैक्चर नहीं था। नसों में खिंचाव आ गया था। धीरे-धीरे उसकी हालत सुधरने लगी। तभी गुनगुन की नज़र एक ऊँट पर पड़ी। सजा-धजा ऊँट गुनगुन को बहुत सुन्दर लगा, वो उसकी सवारी के लिए मचलने लगी। जिम्मी-सन्नी समुद्र में मगन थे इसलिए हमने लड्डू को गुनगुन के साथ ऊँट पर चढ़ाया। ऊँट वाले ने सीढ़ी लगाकर बच्चों को चढ़ने में मदद की। ये देख मुझे भी ताव आ गया और सीढ़ी की सहायता से ऊँट पर जा बैठा। मुझे चढ़ते देख वीणा ने कहा :" अरे, आप कहाँ चढ़ रहे हैं! ऊँटवा इतना भारी बोझा सहने सकेगा का !?" सभी हंसने लगे। ऊँट जैसी आगे चला उसकी डगमग से गुनगुन चिल्लाने लगी, फिर मेरे पुचकारने पर, लड्डू के कहने पर वो शांत हुई और ऊँट की सवारी का भरपूर आनंद लेने लगी। ऊँट की सवारी के बाद हम सभी और बारी-बारी सभी महिलाओं ने समुद्र स्नान का खूब आनंद उठाया।

वीणा, सन्नी, लड्डू और गुनगुन का यह पहला अनुभाव था "समुद्र दर्शन, और स्नान का!" वीणा ने काफी डरते-डरते, कुछ समुद्र के विकराल स्वभाव को देखकर, कुछ अपने "4-चार ऑपरेशन; सर्ज़री" झेल चुके ज़ख़्मी बाएं हाथ की वजह से, इनके बावजूद उसकी प्रसन्नता से हम भी प्रसन्न थे, हमने खूब मस्ती की। गुनगुन रेत से पहाड़, इत्यादि बनाती और लहरें उन्हें तोड़कर अपने साथ बहा ले जातीं। अब लड्डू भी समुद्र स्नान को एन्जॉय करेने लगा। नए ख़रीदे डिजिटल कैमेरे से खूब तस्वीरें खींची गईं। कमल ने जिम्मी से अपना खुद का फोटो खीचने को कहा और 1979 की अपनी चिपरिचित मुद्रा में कमर पर हाथ रखकर सिर्फ चड्ढी में खड़ा हो गया। इस तस्वीर को जब हमने देखा तो खूब हँसे, 1979 का नन्हा "गबुदन", अभी एक दुधारू गाय की तरह दिख रहा था।

अब रूपा भी कमल के साथ पानी में आ गई। डुग्गु को वीणा ने संभाला। रूपा पहले डरते-डरते, फिर खुश हो कर समुद्र स्नान का आनंद लेने लाफि। फिर माँ भी आ गई, पर लहरों के थपेड़ों के आगे उसकी पेश नहीं चल रही थी और हमारे करीब नहीं आ पा रही थी। हमने माँ को संभाल कर अपने नहाने वाले सुरक्षित स्थान तक ले आये। उसे स्वतंत्र छोड़ कर हम खेलने लगे। तभी एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर हमसे फोटो की रिक्वेस्ट करने लगा। तब हमने वीणा को भी फिर पानी में बुला लिया, लड्डू डुग्गु के साथ रहा। इस दरम्यान माँ कई बार गिरी-उठी, जैसे ही फोटोग्राफर ने रेडी बोलता, लहरों के जोरदार थपेड़े हमें बिखेर देते थे, एक बड़ी लहर के जोरदार धक्के से माया 30-फुट दूर किनारे तक बहती चली गई, माँ को यूँ बहते किनारे की ओर जाते देख सभी खूब हँसे, माँ भी हंसने लगी। हँसते हुए उठकर हम फिर जमा होते और फोटोग्राफर हमसे पोज़ बनाने को कहता। वीणा इससे थोड़ी अनसा गई। फिर भी कुछ तस्वीरें खिंच गईं। फिर माँ, वीणा और रूपा शेड में चली गईं।

खारे पानी से मुँह का स्वाद बिगड़ गया था, सो हमने सी-बीच पर बिकते खाद्य-पदार्थों में से कुछ नमकीन और कुछ रसगुल्ले और दूसरी मिठाइयाँ खाईं। फिर बदन सुखा कर रेत झाड़कर कपडे पहन कर हम होटल लौटे जहाँ मैंने गर्म पानी से फिर स्नान किया। खाना खाए। सभी इतने थक चुके थे कि बिस्तर में ही पनाह सूझी। सभी गहरी नींद में सो गए।

शाम में धुले हुए स्वच्छ वस्त्र पहन कर हम सभी श्रीजगन्नाथजी के मंदिर, पूजा और दर्शन के लिए गए। हमारे ड्राईवर ने एक पण्डे को बुलवाया और हमें उसके हवाले कर दिया। पण्डा श्री जगन्नाथ प्रतिहारी जी उर्फ़ हाड़ू पण्डा जी ने हमें सबकुछ समझाया कि कहाँ क्या करना है और कहाँ क्या नहीं करना है। पार्किंग एरिया से हम पैदल ही भगवान के दर्शनों को चल दिए। वहाँ सभी ने जूते-चाप्पल जमा कर टोकन लिया। एक नल के पास जाकर हाथ-पैर धोए, सर पर जल छिडका और हाड़ू पंडा जी के निर्देशानुसार उनके पीछे-पीछे चले। पण्डा जी ने हमसे चढ़ावे की बात की, दक्षिणा की रीत समझाई तो घर का कर्ता होने के कारण मुझे पण्डा जी रजिस्ट्रेशन ऑफिस में ले गए जहां 501/-रुपये से ले कार एक (मेरे लिए) अविश्वसनीय राशि के चढ़ावे और उसकी रीत समझाई। मैंने अपनी ताकत-हिम्मत और औकात के अनुसार एक राशि पर अपनी सहमती दी तो रजिस्ट्रेशन ऑफिस के कर्मचारी और श्री हाड़ू पण्डा जी ने मुझसे तर्क-कुतर्क, वाद-विवाद और समझौवल-मानौवल करने लगे। उनके आगे मेरी पेश न चल सकी, आखिरकार एक उन्हीं के निर्दिष्ट राशि पर कि इससे मुझे, मेरे समस्त परिवार को, मेरे पुरखों को क्या-क्या मिलेगा, मैंने अपनी हामी भरी। तब_! बकायदे मेरे पूरे परिवार के सदस्यों का स्वर्गीय पूज्यवर बाबूजी के नाम के साथ सभी का नाम रजिस्टर हुआ। और हमें दर्शन की परमिट मिल गई। मंदिर में जहां भगवान् स्वयं बहन सुभद्राजी और भईया बलभद्रजी के साथ विराजमान हैं, जब हम वहां पहुंचे तो पाया भगवान् और उनके भक्तों के बीच एक लम्बा फासला है और मुख्य द्वार पर बॉक्सर और बाउंसर जैसे मुस्टंडे पण्डों के वेष में तैनात हैं, कुछ उम्रदराज़ पण्डे द्वार पर फर्श पर ही पसरे हुए हैं, और भगवान इनके बंदी और कैदी बने हुए है। पंडों और दर्शनार्थियों में बकायदे झगडा-झन्झट हो रहा है, पण्डे बेरहमी से दर्शनार्थियों को धकिया रहे थे। हमने हाड़ू पन्दा जी के समझाए मुताबिक प्रवेश करना चाहा तो नीचे बैठे एक वृद्ध पण्डे ने बेरहमी से मुझे धकेल दिया। तभी हाड़ू पण्डा जी ने कुछ संकेत दिया, हमें कहा गया यहीं से दर्शन कर लो, सो बारी-बारी हमने की। फिर हम वहां से निकले तो मुझे मेरे भगवान् के मनोवांछित दर्शन संयोगवश बड़ी सुलभता से हो गई! वो थे वट-वृक्ष के पत्ते पर विराजमान श्रीकृष्ण !! मैंने आज्ञा लेकर भगवान् के चरण पकड़ लिए। मन भारी हो गया। फिर सभी से उनके दर्शन किये। फिर हमें माँ लक्ष्मी के मंदिर में ले गए, जहाँ का नज़ारा ऐसा था की "टिकट" देखकर प्रवेश की आज्ञा मिलती थी। द्वार को घेरे खड़े पण्डों ने एक बड़ा सा परात रखा था, जिसमे बिना "बड़े नोट" डाले बगैर प्रवेश वर्जित था, सभी निराश होकर वापस होने लगे तभी मैंने मन-ही-मन दृढ निश्चय लेकर परात में एक सौ रुपये का नोट डाला, तुरंत मुझे दाखिला मिल गया। मैं माँ लक्ष्मी के भब्य विग्रह के आगे भाव-विह्वल खड़ा होकर स्तुति करने लगा। वहां एक 22/24 वर्षीय युवक पण्डा बना बैठा था उसने बिना मेरे कहे, बिना मुझसे पूछे मेरे से कुछ कर्मकांड कराने लगा। फिर बारी आई मोल-भाव की! तुरंत हमारे हाड़ू पण्डा जी प्रकट हुए और युवक को संकेत किया। युवक एक ख़ास रकम का खूंटा गाड़ कर जिद्द करने लगा, मैंने उनकी बड़ी मिन्नतें की। कोई सुनवाई नहीं। आखिरकार मैंने जब अपनी जेब झाड दी तो मेरे पास सिर्फ एक 50/ रूपए का नोट भर बचा था!! वहां से निकला तो सभी मुझपर टूट पड़े, :"क्या ज़रुरत थी अन्दर जा कर पैसे चमकाने की!!??" मैं उन्हें कैसे समझाता की "माँ" अनमोल है। मैं संतुष्ट था। कोई शिकायत नहीं।

हाड़ू पण्डा जी ने हमारे चढ़ावे की, मेरे आग्रह पर, 2 पैकिंग बनवा लाये थे। और एक मिटटी की हांड़ी में "महाप्रसाद" लेते लाये थे जो शुद्ध घी में पकी खिचड़ी थी। हमने प्रसाद पाया। भगवान् को पुनः नमस्कार किया, हाड़ू पण्डा जी की "फीस", मेरे कहने पर, कमल ने चुकाई। फिर हम वापस लौट चले। मन बहलाने के लिए हम सी-बीच पर आ गए। वहां के मेले जैसे माहौल में हमारा दिल फिर प्रसन्न हो गया। घूम-फिरकर हम वापस होटल लौट आये। रात्रि भोजन (शाकाहारी) होटल में ही हुआ। यूँ हमारा आज का दिन बीता।

गुड-नाईट!
जय जगन्नाथ!  
_श्रीकांत .